SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * पाश्वनाथ-चरित्र बना। यह देखकर मुनिने कहा- अहो! इसने कर्मक्षय करनेमें मुझे सहायता पहुँचा कर मुझपर बड़ाही उपकार किया है। इसके बाद शीघही उन्हें विष चढ़ आया अतएव उन्होंने समस्त पापोंकी आलोचना कर, समस्त प्राणियोंसे क्षमा प्रार्थना की और अनशन एवम् नमस्कार मन्त्रका ध्यान करते हुए उस नश्वर शरीरको त्याग दिया। पाँचवाँ भव। इस प्रकार शरीर त्याग कर वे बारहवें देवलोकमें जम्बूद्रुमावर्त नामक विमानमें वाईस सागरोपमके आयुश्यवाले प्रवर देव हुए ओर वहां वह दिव्य सुखं उपभोग करने लगे। जिसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता। किसीने सच ही कहा है, कि देवलोकमें देवताओंको जिस सुखकी प्राप्ति होती है, उसे शत जिह्वावाला पुरुष सौ वर्षतक वर्णन करता रहे, तब भी उसका अन्त नहीं आ सकता। उधर हेमाद्रि पर्वतपर उस सर्पकी बड़ी ही दुर्गति हो रही थी। रौद्रध्यानसे अनेक जीवोंका भक्षण करते करते अन्तमें एक दिन वह दावानलमें जल मरा। इस प्रकार मृत्यु होनेपर वह तमःप्रभा नामक नरकमें बाईस सागरोपमके आयुष्यवाला नारकी हुआ। यहां उसे भांति भांतिकी यन्त्रणायें होने लगी। कभी वह मूशलोंसे कूटा जाता, कभी उसपर वन मुद्गरोंकी मार पड़ती, कभी कुभीमें सड़ाया जाता, कभी तलवारोंसे काटा जाता, कभी आरेसे उसके टुकड़े किये जाते; कभी श्वान और
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy