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* द्वितीय सर्ग* ___ रानी और रोते-विलखते हुए बच्चोंको सान्त्वना देता और नाना प्रकारके कष्टोंका सामना करता हुआ राजा बहुत दिनोंके बाद पृथ्वोपुर नामक एक नगरमें पहुंचा। वहाँ श्रीसार नामक एक दयालु बनिया रहता था। उसने राजाको रहने के लिये एक मकान दिया। वहीं वह अपनी रानी और पुत्रोंके साथ रहने लगा। पुत्र अभी छोटे थे और राजाको जरा भी परिश्रम करनेका अभ्यास न था; इसलिये रानी पड़ोसियोंके यहाँ दासी वृत्तिकर जो कुछ ले आती, उसीसे उन लोगोंका निर्वाह चलता। इस प्रकार यद्यपि उन्हें नीच काम करने पड़ते थे, तथापि सुशीलता, सुसाधुता और मधुर वचनोंके कारण लोग उनका बड़ा सम्मान करते थे। कहा भी है कि:
"स्थान भ्रशान्नीच संगाखण्डनाद् घषणादपि ।
अपरित्यक्त सौरभ्यं, बंद्यते चन्दनं जनैः॥" अर्थात्-"स्थान भ्रष्टता, नीच संगति, वण्डन और घर्षण प्रभृति होनेपर भी चन्दन सुगन्धको नहीं छोड़ता।" इसीलिये संसारमें वह वन्दनीय माना जाता है।"
लगोंसे फटेपुराने वस्त्र, बासी और ठंढा भोजन प्रभृति जो कुछ मिल जाता, उसीमें अब राजा और रानी सन्तोष मानते। इस प्रकार दुःख सहन करते हुए उन्होंने बहुत दिन व्यतीत किये।
एक बार एक बनजारा बहुत आदमियोंके साथ व्यापारके निमित्त पृथ्वीपुर आया और नगरके समीप ही एक उद्यानमें डेरा डाला । उसने भोजनके लिये अन्न और घृतादि सामग्रो श्रोसारकी