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* द्वितीय सगे*
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जीव अशरण है। प्राणियोंपर वारंबार जन्म मरणकी जो विपत्ति पड़तो है, उसे दूर करना किसोके समर्थ्यकी बात नहीं। यह प्राण पांच दिनका अतिथि है, यह समझ कर किसोपर रागद्वेष न करना चाहिये। स्व और पर-अपने और परायका तो प्रश्नही बेकार है। अरण्य रोदनको भांति दैवको उपालम्भ देनेसे भी क्या लाभ ? समुद्रके अवगाहनकी भांति विकल्पको कल्पना भी बेकार है। मनुष्यको ख और परका रूप जानना चाहिये।" इस प्रकार गुरुके मुखसे उपदेश सुनकर राजाको प्रतिबोध प्राप्त हुआ
और उसने प्रवज्या रूपी व्रत ग्रहण कर अन्तमें मोक्ष प्राप्त किया। लोगोंको इस कथासे सार ग्रहण कर, परद्रव्यका परि. हार करना चाहिये। ____ अब हम लोग चौथे अणुव्रतके सम्बन्धमें विचार करगे। चौथा अणुव्रत है ब्रह्मवयं ब्रतका पालन करना। इसके भी पांच अतिचार त्यागने योग्य हैं। वे पांच अतिचार यह हैं—(१) अन्य परिगृहित अंगना (किसोने निश्चित समयके लिये रखी हुई पर स्त्रो) से रमण करना । (२) अपरिगृहीता स्त्री (वेश्या ) से रमण करना । (३) दूसरोंके विवाह करना। (४) कामभोगकी तीव अभिलाषा और (५) अनंग क्रीड़ा। इन पांचों अतिचारों का त्याग करना चाहिये । जो पुरुष शीलवतको पालन करते हैं उन्हें व्याघ्र, व्याल, जल, वायु प्रभृति किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुँचा सकते । उसका सर्वत्र कल्याण ही होता है। देवता उसे सहायता करते हैं। कोर्ति बढ़ती है। धर्मकी वृद्धि होती है।