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________________ * द्वीतीय सर्ग * १४३ Suvv~~~~ चिर संगिनी बनती है, रोग-दोष उससे दूर रहते हैं, सुगति उमकी स्पृहा करती है, दुर्गति उसकी ओर देख भी नहीं सकती, और विपत्ति तो उसका सर्वथा त्याग ही करती है। चोर जिसे दूसरों के हिताहितका ज्ञान नहीं होता, वह भी वैराग्य रूप कर्मरूपी शस्त्रोंसे मोहरूपी तिमिर और कर्मरूपी मल नष्ट करनेमें समर्थ होता है। ऐसा होनेपर उसको अन्तर्दृष्टि प्रकट होती है, फलतः दृढ़प्रहारीको भांति समभावसे वह भी शुद्ध हो जाता है। विचार करो, क्या भयंकरसे भयंकर दाबानल भी मेघसे शान्त नहीं होता? अवश्य होता है। जो ज्ञानी है—सजन हैं, वे एक तिनका भी विना किसीके दिये (अदत्त ) ग्रहण नहीं करते। जिस प्रकार चाण्डालको एक अंगुली भो छू जानेसे समूचा शरीर अपवित्र हो जाता है, उसी तरह किञ्चितमात्र भी अदत्त ग्रहण करनेसे दोष-भागी होना पड़ता है । वैर, वैश्वानर (क्रोध किंवा अग्नि) व्याधि, व्यसन और वाद यह पांच वकार बढ़ने पर बड़ाहो अनर्थ करते हैं । चोरीका पाप तप करनेपर भी प्रायः भोग किये बिना नहीं छुटता । इस सम्बन्धमें महाबलकी कथा मनन करने योग्य है। वह कथा इस प्रकार है :
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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