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________________ * द्वितीय सर्ग वस्थामें ही था, तब उसने नैमित्तिकसे पूछा-“हे दैवज्ञ ! मेरी बुद्धि इस समय चकरा रही है। क्या देख रहा हूं और यह क्या हो रहा है सो कुछ भी मुझे समझ नहीं पड़ता। क्या आप कुछ बतानेकी दया करेंगे?" . नैमित्तिकने कहा-“राजेन्द्र ! मैंने आपको उपदेश देनेके लिये ही यह इन्द्र जाल दिखाया है। यदि आप आत्मकल्याण साधन करना चाहते हों तो इसी समय सजग हो जाइये। अन्यथा पश्चातापके सिवा और कोई उपाय न रहेगा। ___ नैमित्तिककी बात सुन राजाको बड़ा ही आनन्द हुआ। उसने उसे विपुल सम्पत्ति दे विदा किया। नैमित्तिक चला गया ; पर उसके कार्यका गहरा प्रभाव राजाके हृदय पर पड़ा रह गया। वह अपने मनमें कहने लगा “अहो ! जैसे इस इन्द्रजालके दृश्य, क्षणिक हैं, उसी तरह यह यौवन, प्रेम, आयु और ऐश्वर्य भी क्षणिक है। इसके अतिरिक्त यह शरीर भी अपवित्र है ; क्योंकि यह रस, रक्त, मांस, चरबी, मज्जा, अस्थि, शुक्र, अन्त्रावली और चर्म प्रभृति दूषित पदार्थोंसे ही बना है। यह भी संसारकी एक विचित्रता ही है, कि लोग जिस स्थानसे उत्पन्न होते हैं, उसी स्थानसे अनुराग करते हैं ! जिसका पान करते हैं, उसीका मर्दन करते हैं ! फिर भी उन्हें वैराग्य नहीं आता। जब इस बात पर विचार किया जाता है कि मैं कौन हूं और कहांसे आया हूं, मेरी माता कौन हैं और मेरा पिता कौन हैं, तब इस संसारका समस्त व्यवहार स्वप्नसा प्रतीत होता है। फूटे हुए घड़ेके पानोको तरह आयु निरन्तर
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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