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सूलपाणियक्षका
इय भणिऊण सुरिंदो पूयइ धणकणगरयणरासीहिं । सामुद्दियं पहट्टं जिणो वि अण्णत्थ विहरेइ ॥ ४८६॥
जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंतित्ति तं जहा - दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पण्णे सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ अहियासेइ ॥ सूत्र ११७ ॥
पढमे वासारत्ते सूलपाणि - जक्खालये जिणंदो । चिट्ठइ निच्चल-चित्तो उवस्सग्गे कुणइ सो देवो ॥ ४६० ॥
सो पुण दुट्ठ-सहावो वासं कस्सइ न देइ रयणीए । सो पुव्व-भवे आसी वसहो धणदेव - वणियस्स ।। ४६१ ॥
पंच सए सगडाणं उत्तारेउं नईइ सो तुट्टो | गामस्स वद्धमाणस्स बाहिं मुत्तुं गओ वणिओ ॥। ४६२ ॥
पाणी-चारि-निमित्तं दव्वं गामिल्लयाण दाऊणं । तेहि य न किंचि दिण्णं तिहाइ छुहाइ सो मरिउं ॥ ४६३ ॥ जाओ य सूलपाणी रुट्ठो उवरिं च तस्स गामस्स । मारिं विउव्विऊणं निवाइओ बहु-जणो तेण ॥ ४६४ ॥
लोगेणं विण्णविओ तव्वयणेणं च देउलं काउं । तप्पडिमा कारविया जत्तं पूयं च कारिति ॥ ४६५ ॥ तमारिय जण - अ - अट्ठीनियरो दीसइ पए पए तत्थ । तो सो अट्ठियगामो त्ति लोयमज्झमि विक्खाओ ॥ ४६६ ॥
तस्सेव बोहणत्थं भयवं पडिमाइ संठिओ रत्तिं । तस्साययणे सो च्चिय दहुं रुट्ठो जिणस्सुवरिं ॥ ४६७ ॥ उवसग्गिउमाढत्तो संझाए कुणइ भूमि-भेयकरं । अट्टट्टहास - सद्दं मणुय-तिरिक्खाण तासणयं ॥ ४६८ ॥
तत्तो य हत्थि-रूवं पिसाय-रूवं च नाग- रूवं च । काउं उवसग्गेइ खुहइ मणागं पि नो भयवं ॥ ४६६ ॥
[ कल्पान्तर्वाच्यः
सिर-कण्ण-नास अच्छी-दंत-पिट्ठीसु वेयणं कुणइ । इक्किक्का जा जीवियहरणे अण्णस्स सुसमत्था ।। ५०० ।।