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दीक्षा
न भूयं नो भविस्सइ इंदा जं असुरदेवयाईणं । साहिज्रेण णाणं उप्पाडिंसु जिणा कइया ।। ४६४॥ उप्पाडिं जिणंदा सएण उट्ठाण - वीरिय-बलेणं । सिद्धत्थ-सुरं तह विहु जिण-पासे ठावइ सक्को ।। ४६५ ॥ पणमिय गओ य सको भयवं कुल्लाग-संनिवेसे य । माहण-बहुल-गिह-खीर-पारणं कुणइ जिणवीरो ।। ४६६ ।। अद्ध-तेरस-कोडी उक्कोस होइ तत्थ वसुहारा । अद्ध-तेरस लक्खा जहण्णिया होइ वसुहारा ।। ४६७ ॥ दिक्खावसरे इंदाईहिं कयं सुगंध-पूयणं जिणस्स । - तग्गंधागिट्ठा विहु भमराइ कुणंति उवसग्गं ॥ ४६८ ॥
मोराग-सन्निवेसे दुइजंतग-तावसालय-समीवे । कुलवइणा पहू दिट्ठो सो पिउमित्तो य पत्थेइ ॥ ४६६ ॥
चउमासत्थं इच्छउ आगन्तव्वं तए महवरोहा । सामी वि विहरमाणो वासत्थं आगओ तत्थ ।। ४७० ॥ उडए चिट्ठइ सामी कुलवइणा अप्पिए य पडिमाए । तिण - लाभाभावाओ गावो भक्खंति तं उडयं ॥ ४७१ ॥ नाया तेसिमपीई चलिओ तत्तो य पक्ख-पजंते । पंचाभिग्गह-गहिया न गेहि विणयं करिस्सामि ।। ४७२ ॥ निचं पडिमा ठिइ अपीइ-गेहे वसामि नो चेव । मोणं च पाणिभोयण अभिग्गहा पंच मे नेया ॥ ४७३ ॥
[ कल्पान्तर्वाच्यः
समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्था । तेण परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए । समणे भगवं महावीरे साइरेगाइ दुवालसवासाइं निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति तं जहा - दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पण्णे सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ अहियासेइ || सूत्र ११७॥
पिउणो य मित्त-सोमो आजम्मं चेव निद्धणो भट्टो । धणलाभत्थी पत्तो आसं काउं जिण-सगासे ।। ४७४ ।।