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________________ कल्पान्तर्वाच्यः ] मेघकुमारकथा संझा-समये थेरा सयणट्ठा सव्व साहु-वग्गस्स । भू-भागं विभइत्ता जहारिहं ते समप्पंति ।। १५६ ॥ मेहमुणिस दुवारे संथारो आगओ य रयणीए । सुत्तं मेह- मुणीसं साहू घट्टंति पाएसु ॥ १६०॥ केइ कुप्पर- उयरेसु पाए छुज्झति केइ गुंडंति । रयसा; तस्स सरीरं गमणागमणं कुणंता य ॥ १६१ ॥ हो चिंतइ एवं पुव्विं मे सायरा इमे साहू । इणं मज्झ सरीरं घट्टंति य लेहु-खंडुव्व ॥ १६२ ॥ कत्थ मे पुप्फ-सिजाए सावो भू-सत्थरे वि य । कहं संजम - भारं च दुस्सहं खु वहामि हं ॥ १६३ ॥ आपुच्छित्ता गमिस्सामि सिरिवीरं जिणेसरं । रज्ज-सज्जुंमि गेहंमि पभाए इय चिंतइ ॥ १६४ ॥ खणमित्तं नागया निद्दा दुक्खेण रयणी गया । आगओ जिण-पासंमि चिट्ठइ तुण्हिको ठियो ।। १६५ ।। भुट्ठो य जिणं मेह ! तुमं आगओ समाहीए। रत्ति-विचिंतिय-कजं कहियं सिरिवीरनाहेणं ।। १६६ ॥ वच्छ ! तुमं किं दूयसि ? साहुजण-धणेण हिययंमि । एएसिं पाय- रओ फेडेइ सयल - दुरियाई ॥ १६७ ॥ संजम - दुक्खं एयं न भविस्सइ तुह महच्चिरं कालं । उव्वेयं माकुणसु सयं पवण्णोऽसि चारित्तं ॥ १६८ ॥ को चक्कवट्टि - रिद्धिं चइउं दासत्तणं समभिलसइ । को वर-रयणाइ मुत्तुं परिगिण्हइ उवलखंडाइं ।। १६६ ।। नेरइयाण वि दुक्खं झिजइ कालेण किं पुण नराणं । ता न चिरं तुह होही दुक्खमिणं मा समुव्वियसु ॥ १७० ॥ जियं जल-बिंदु- समं संपत्तीओ तरंग - लोलाओ । सुविणय-समं च पिम्मं जं जाणसु तं करिजासु ।। १७१ ।। वरमग्गिंमि पवेसो वरं विसुद्धेण कम्मुणा मरणं । मा गहिय-वय-भंगो मा जियं सील खलियस्स ।। १७२ ॥ [ १५
SR No.023172
Book TitleKalpantarvcahya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherSharadaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1997
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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