SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 817
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७९४) अर्थ:-एक श्रीमुनिसुन्दर गुरु महामारी, ईति आदिउपद्रवका दूर करना तथा सहस्रनाम स्मरण करना इत्यादिकृत्योंसे चिरन्तन आचार्यकी महिमा धारण करनेवाले हुए. ॥८॥ श्रीजयचन्द्रगणन्द्रा-निस्तन्द्राः संघगच्छकार्येषु ॥ श्रीभुवनसुन्दरवरा, दूरविहारैर्गणोपकृतः ॥९॥ अर्थः-दूसरे संघ तथा गच्छके काममें आलस्य न करनेवाले श्रीजयचन्द्र आचार्य तथा तीसरे दूर विहार करके संघ पर उपकार करनेवाले श्रीभुवनसुन्दरसरि हुए ॥९॥ विषममहाविद्यात--द्विडम्बना धौ तरीव वृत्तियः ॥ विधे यज्ज्ञाननिर्षि, मदादिशिष्या उपाजीवन् ॥१०॥ अर्थ:-जिन्होंने विषममहाविद्याके अज्ञानसे विडम्बनारूप समुद्र में पडे हुए लोगोंके उद्धारार्थ नाव समान महाविद्यावृत्ति करी, और जिनके ज्ञाननिधिको मेरे समान शिष्य आश्रय कर रहे हैं. ॥१०॥ एकाला अध्येकावसागिनश्च जिनसुन्दराचार्याः ॥ निर्गन्या ग्रन्थकृतः, श्रीमजिनकीर्तिगुरवश्व ॥११॥ अर्थः-चौथे एक अंग ( शरीर ) धारण करते हुए भी ग्यारहअंग (सूत्र ) धारण करनेवाले श्रीजिनसुन्दरमरि तथा
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy