SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 808
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७८५) वर्जे याने दीक्षा ग्रहण न की जासके तो आरंभका त्याग करे । उसमें पुत्रआदि कोई भी घरका सर्व कार्य भार सम्हाल लेने योग्य होवे तो सर्वआरंभका त्याग करना, और वैसा न होवे तो सचित्तवस्तुका आहारआदि निर्वाहके अनुसार आरंभ त्याग करे । बन सके तो अपने लिये अन्नका पाक आदि भी न करे । कहा है कि- जिसके लिये अन्नका पाक ( रसोई) बने उसीके लिये आरंभ होता है । आरंभमें जीवहिंसा है, और जीवहिंसासे दुर्गति होती है। सोलहवां द्वार. श्रावकने आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये । ... जैसे पेथड श्रेष्ठीने बत्तीसवें वर्ष में ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया और बादमें वह भीमसोनीकी मढीमें गया। ब्रह्मचर्यआदिका फल अर्थदीपिकामें देखो। सत्रहवां द्वार श्रावक प्रतिमाआदि तपस्या करे , आदिशब्दसे संसारतारण इत्यादि कठिन तपस्या समझनी चाहिये । उसमें मासिकी आदि ११ प्रतिमाएं कही हैं । यथाः-- दसण १ वयं २ सामाइअ ३, पोसह ४, पडिमा ५ अबंभ६ सञ्चित्ते ७ आरंभ ८ पेस ९ उद्दि-ट्ठवज्जए १० समणभूए ११ अ ॥१॥ . अर्थ:-- १ दर्शनप्रतिमाका स्वरूप यह है कि उसमें राजाभियोगादि छ: आगार रहित, श्रद्धानआदि चार गुण
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy