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मानों कर्मरूप शत्रु पर चढाई करना हो इस भांति शीघ्रतासे मार्ग काटते हुए कुछ दिन के पश्चात् राजा काश्मीर देशके एक वनमें पहुंचा। उस समय क्षुधा, तृषा, पैदल चलना तथा मार्गका परिश्रम इत्यादि कारणोंसे राजा तथा दोनों रानियां व्याकुल होगये थे । तब राजाके सिंह नामक चतुर प्रधानने चिन्तातुर होकर श्रुतसागरसूरिजी से कहा कि, " गुरुमहाराज ! आप युक्तिसे राजाके मनका समाधान करिये, अन्यथा धर्मके स्थान - में उलटी लोकमें हंसी होगी. " यह सुन श्रीश्रुतसागरसूरिजी ने राजासे कहा कि, " हे राजन् ! अब तूं लाभालाभका विचार कर । सहसा किया हुआ कोई कार्य प्रामाणिक नहीं समझा जाता। इसी हेतु से पच्चक्खानके दंडकमें सब जगह सहसाकारादिको छूट रखी है । "
राजा जितारि यद्यपि शरीरसे व्याकुल होगया था तथापि मनसे सावधान था । उसने कहा कि, " हे महाराज ! यह उपदेश उस व्यक्ति पर घटित हो सकता है जो की हुई प्रतिज्ञाका पालन करने में अशक्त हो, मैं तो सर्वथा मेरे अभिग्रहको पालने में समर्थ हूं । प्राण जाय तो चिन्ता नहीं पर मेरा अभिग्रह कदापि भंग नहीं हो सकता. "
उस समय हंसी तथा सारसीने भी धैर्य तथा उत्साह पूर्वक अपने पतिको उत्तेजन देकर अपना अभिग्रह पालनेके लिये आग्रह करके वीरपत्नीत्व प्रकट किया । सब लोग भी राजाकी