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________________ ( ५२ ) शत्रुंजय पर्वत पर श्री ऋषभदेव भगवानको वन्दना करूंगा तभी मैं अन्न जल ग्रहण करूंगा " हंसी, सारसी आदि अन्य लोगोंने भी 'यथा राजा तथा प्रजा' की नीतिके अनुसार यही अभिग्रह लिया । धर्मकार्य करते समय यदि मनुष्यको विचार करना पडे तो वह भाव ही क्या हैं ? इसीलिये राजादिकोंने केवल भाववश बिना विचार किये ही तुरत अभिग्रह लिया। मंत्री आदि लोगों 1 राजाको नानाभांति से समझाया कि, " कहां तो अपना नगर और कहां शत्रुंजय तीर्थ ! सहसा ऐसा अभिग्रह लेना यह कैसा कदाग्रह है ? यह कितने खेद की बात है? " इसी भांति श्रुतसागर सूरिजी ने भी कहा कि, " हे राजन् ! वास्तवमें विचार करके ही अभिग्रह लेना योग्य हैं, क्योंकि बिना बिचारे कार्य करनेसे यदि पीछेसे पश्चात्ताप होवे तो उस कार्य से कोई लाभ नहीं, इतना ही नहीं बल्कि आर्त्तध्यानसे अशुभकर्मका संचय होता है " जितारी राजाने कहा कि, " गुरुमहाराज ! पानी पीकर जात पूछने अथवा मुंडन के पश्चात् मुहूर्त पूछने से जैसे कोई लाभ नहीं वैसे ही अब विचार करनेसे क्या लाभ है ? हे महाराज ! किसी प्रकार पश्चाताप न करके मैं अपने अभिग्रहका पालन करूंगा तथा आपके चरनोंके प्रसादसे शत्रुंजय पर जाकर श्री ऋषभदेव भगवानके दर्शन करूंगा, इसमें कौनसी असंभव बात है ? क्या सूर्यका सारथी अरुण पंगु होने पर भी सूर्य की महेरबानी से नित्य संपूर्ण आकाश मार्गका भ्रमण नहीं करता ? ' यह कह कर राजा सकुटुंबपरिवार संघके साथ चला ।
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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