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ध्वनि करते थे. श्रावक स्नात्र तथा चन्दनका विलेपन करके सुगंधित पुष्पोंसे पूजित श्रीपार्श्वजिनकी प्रतिमाको कुमारपालके बंधवाये हुए मंदिरके सन्मुख खडे हुए रथमें बडीही ऋद्धिसे स्थापन करते थे. वाजिंत्रके शब्दसे जगत्को पूर्ण करनेवाला
और हर्ष पूर्वक मंगलगीत गानेवाली सुन्दरस्त्रियोंके तथा सामन्त और मंत्रियोंके मंडल के साथ वह रथ राजमहलके आगे जाता, तब राजा रथमें पधराई हुई प्रतिमाकी पट्टवस्त्र, सुवर्णमय आभूषण इत्यादि वस्तुओंसे स्वयं पूजा करता था और विविध प्रकारके नाटक, गायन आदि कराता था । पश्चात् वह रथ वहां एक रात्रि रह कर सिंहद्वारके बाहर निकलता और फहराती हुई ध्वजाओंसे मानो नृत्य ही कर रहा हो ऐसे पट मंडपमें आता। प्रातःकालमें राजा वहां आकर रथमें विराजमान जिन-प्रतिमाकी पूजा करता और चतुर्विध संघके समक्ष स्वयं आरती उतारता था। पश्चात् हाथी जोता हुआ रथ स्थान स्थानमे बंधवाये हुए बहुतसे पटमंडपोंमें रहता हुआ नगरमें फिरता था। इत्यादि
अब ३ तीर्थयात्राके स्वरूपका वर्णन किया जाता है ।
श्रीशजय, गिरनार आदि तीर्थ हैं। इसी प्रकार तीर्थकरोंकी जन्म, दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण और विहारकी भूमियां भी अनेको भव्यजीवोकों शुभभाव उत्पन्न करती हैं और भवसागरसे पार करती है, अतएव वे भूमियां भी तीर्थ कहलाती