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(७०३) शास्त्रमें जो उनकी विशेष निन्दा सुनने में आती है, वह पुरुषोंने उनमें आसक्ति न करना इस उपदेश ही के लिये है. सुलसा आदि श्राविकाओंके गुणोंकी तो तीर्थंकरोंने भी बहुत प्रशंसा करी है. उनकी धर्मदृढताकी प्रशंसा इन्द्रोंने भी स्वर्गमें करी है; और प्रबलमिथ्यात्वी भी इनको समकितसे न डिगा सके. इसी प्रकार कितनीही श्राविकाएं तद्भवमोक्षगामिनी तथा कितनी ही दो, तीन आदि भव करके मोक्षगामिनी शास्त्रमें सुनी जाती हैं. इसलिये माताकी भांति, बहिनकी भांति, तथा पुत्रीकी भांति इनका वात्सल्य करना घटित ही है.
साधर्मिवात्सल्य कर ही के राजालोग अपना अतिथिसंविभागवत पालते हैं. कारण कि, मुनियों को राजपिंड खपता नहीं. इस विषय पर भरतके वंशमें हुए त्रिखंडाधिपति दंडवीर्य. राजाका दृष्टान्त कहते हैं किः-.
दंडवीर्य राजा नित्य साधर्मिभाईको जिमाकर ही स्वयं भोजन करता था. एक समय इन्द्रने उसकी परीक्षा करनेका विचार किया. उसने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीन रत्नोंका सूचक सुवर्णसूत्र (जनेऊ) और बारहव्रतोंके सूचक बारह तिलक धारण करनेवाले तथा भरत रचित चार वेदोंका मुख पाठ करनेवाले, तीर्थयात्रा प्रवासी करोडों श्रावक प्रकट किये. दंडवीर्य भक्तिपूर्वक उनको निमंत्रण करके जिमाता है, इतनमें सूर्यास्त होगया. इस प्रकार लगातार आठ दिन तक श्रावक