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________________ (६७३) जो पौषध पारनेकी इच्छा होवे तो एक खमासमण देकर "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मुहपत्ति पडिलेहेमि" ऐसा कहे. गुरुके "पडिलेहह" कहने पर मुंहपत्तिकी पडिलेहणा कर एक खमासमण देकर "इच्छाकारेण सांदसह भगवन् ! पोसहं पारूं ?" कहे पाछे जब गुरु कहे "पुणोवि काययो" तब यथाशक्ति ऐसा कहकर खमासमण देकर कहना कि--" पोसहं पारिअं" फिर गुरुके "आयारो न मुत्तव्यो" यह आदेश कहने पर तहत्ति कहकर खडे रह नवकारकी गणना कर घुटनों पर बैठ तथा भूमिको मस्तक लगाकर ये गाथाएं कहनाः "सागरचन्दो कामो, चंदवडिसो सुदंसणो धन्नो ॥ जेसिं पोसहपडिमा, अखंडिआ जीवितेऽवि ॥१॥ धन्ना सलाहणिज्जा, सुल सा आणंद कामदेवा अ ॥ जास पसंसइ भयवं, दृढव्ययत्तं महावीरो ॥२॥" पश्चात् यह कहे कि “पौषध विधिसे लिया, विधिसे पारा, विधिसे जो कुछ अविधि, खंडना तथा विराधना मन, वचन, कायासे होगई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं." सामायिककी विधि भी इसी प्रकार जानो. उसमें इतनाही विशेष है कि, 'सागरचन्दो' के बदलेमें ये गाथाएं कहनाः-. सामाइअवयजुत्तो, जाव मणे होइ निअमसंजुत्तो ॥ छिदइ असुहं कम्म, सामाइय जत्तिआ वारा ॥१॥ छउमत्थो मूढमणो, कित्तिअमित्तं च संभरइ जीवो ॥
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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