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________________ ( ५९९ ) . सहायता से सम्पूर्ण जगत् में तेरा इन्द्रकी तथा अन्यदेवताओं की भांति एक छत्र राज्य हो. लक्ष्मीसे इन्द्रकी समानता करते, इस लोक में साम्राज्य भोगते हुए तेरा देवांगनाएं भी स्वर्ग में कीर्ति गान करें. " रत्नसारकुमार मनमें विचार करने लगा कि, "मेरे पुण्योदयसे यह राक्षस मुझे राज्य देता है। मैंने तो पूर्व में साधु मुनिराजके पास परिग्रह परिमाण नामक पांचवां अणुव्रत ग्रहण किया है, तब राज्यग्रहणका भी नियम किया है, और अभी मैंने इस राक्षसके सन्मुख स्वीकार किया है कि, " जो तू कहेगा वही मैं करूंगा " यह बड़ा संकट आ पडा ! एक तरफ गड्ढा और दूसरी तरफ डाकू, एक तरफ शेर और दूसरी तरफ पर्वतका गहरा गड्ढा, एक तरफ पारधी और दूसरी तरफ पाश ऐसी कहावतें के अनुसार मेरी दशा होगई है. जो व्रतका पालन करता हूं, तो राक्षसकी मांग वृथा जाती है, और राक्षसकी मांग पूरी करूं तो स्वीकार किये हुए व्रतका भंग होता है । हाय ! अरे रत्नसार ! तू महान् संकट में पड गया !! दूसरा चाहे कुछ भी मांगे तो भी कोई भी उत्तमपुरुष तो वही बात स्वीकार करेगा कि जिससे अपने व्रता भंग न हो । कारण कि व्रत भंग हो जाने पर बाकी रहा ही क्या ? जिससे धर्मको बाधा आवे ऐसी सरलता किस कामकी ? जिससे कान टूट जावे, ऐसा सुवर्ण हो तो भी वह किस कामका ? जहां तक दांत पडना संभव नहीं,
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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