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स्वीकार कर लेने पर, राजा, रत्नसारकुमार, दो राजकन्याएं तथा अन्य परिवार सहित अपनी नगरीकी ओर चला. उस समय विमान में आरूढ हो साथमें चलनेवाली चक्रेश्वरी, चन्द्रचूड़आदि देवताओंने मानों भूमिमें व्याप्त सेनाकी स्पर्धा हीसे स्वयं आकाशको व्याप्त कर दिया. जैसे सूर्य किरणों के न पहुंचने से भूमिको ताप नहीं लगता उसी भांति ऊपर विमानों के चलने से इन सर्वजनोंको मानों सिर पर छत्र ही धारण किया हो, वैसे ही बिलकुल ताप न लगा. क्रमशः जब वे लोग नगरीके समीप पहुंचे तब वरवधूओंको देखनेके लिये उत्सुक लोगों को बडा हर्ष हुआ. राजाने बड़े उत्सवके साथ वरवधूओंका नगरमें प्रवेश कराया. उस समय स्थान २ में केशरका छिटकाव किया हुआ होने से वह नगरी तरुणस्त्री के समान शोभायमान, घुटने तक फूल बिछाये हुए होनेसे तीर्थंकरकी समवसरण भूमिके समान तथा उछलती हुई ध्वजारूप भुजाओंसे मानो हर्षसे नाचही रही हो ऐसी दीखती थी, ध्वजाकी घूघरियों के मधुरस्वर से मानों गीत गा रही थी तथा देदीप्यमान तोरणकी पंक्ति ऐसी थी मानो जगत्की लक्ष्मीका क्रीडास्थल हो. नगरवासी लोग ऊंचे २ मंच पर बैठ कर मधुर गीत गा रहे थे. सौभाग्यवती स्त्रियोंके हंसते हुए मुखसे पद्मसरोवर की शोभा आ रही थी तथा स्त्रियोंके कमलवत् नेत्रोंसे वह नगरी नीलकमलके वन सदृश दीखती थी.