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(५८१) कि-हे कुमार! प्रथम ही से तेरे भाग्यकी दी हुई यह दोनों कन्याएं मैं अभी तुझे देता हूं। मंगलकार्यों में अनेकों विघ्न आते हैं, इसलिये तू इनका शीघ्र पाणिग्रहण कर ।" यह कहकर वह वर और कन्याओंको अत्यन्त रमणीक तिलकवृक्षके कुंजमें लेगया। चक्रेश्वरीदेवीने रूप बदलकर शीघ्र वहां आ प्रथम ही से सर्व वृत्तान्त जान लिया था अतएव वह विमानमें बैठकर शीघ्र वहां आ पहुंची। वह विमान पवनसे भी अधिक वेगवाला था। उसमें रत्नोंकी बडी बडी घंटाएं टंकारशब्द कर रही थीं, रत्नमय सुशोभित घूधरियोंसे शब्द करनेवाली सैकडों ध्वजाएं उसमें फहरा रहीं थीं, मनोहर मा. णिक्य-रत्न-जडित तोरनसे वह बड़ा सुन्दर होगया था, उसकी पुतलिये नृत्य, गीत और वाजिंत्रके शब्दसे ऐसी भासित होरहीं थी मानो बोलती हों, अपार पारिजातआदि पुष्पोंकी मालाएं उसमें जगह जगह टंगी हुई थीं, हार, अर्धहारआदिसे वह वडा भला मालूम होता था, सुन्दर चामर उसमें उछल रहे थे, सर्वप्रकारके मणिरत्नोंसे रचा हुआ होनेके कारण वह अपने प्रकाशसे साक्षात् सूर्यमंडलकी भांति निविड़ अंधकारको भी नष्ट कर रहा था । ऐसे दिव्यविमानमें चक्रेश्वरी देवी बैठी, तब उसकी बराबरीकी अन्य भी बहुतसी देवियां अपने २ विविधप्रकारके विमानमें बैठकर उसके साथ आई तथा बहुतसे देवता भी सेवामें तत्पर थे । वर तथा कन्याओनें गोत्रदेवीकी भांति चक्रेश्वरी