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(५७९) की विचित्र गतिको धिक्कार है ! बहिन ! आजतक सुखमें रही हुई तूने देवांगनाओंके तिर्यचके गर्भ में रहने के समान, असह्य व अतिदुःखदायी पंजरवास किस प्रकार सहन किया ? हाय हाय ! ज्येष्ठभगिनी ! इसीभवमें ही तुझे तिर्यचपन प्राप्त हुआ। दैव नटकी भांति सुपात्रकी भी विडम्बना करता है, अतः उसे धिक्कार है ! बहिन ! पूर्वभवमें तूने कौतुकवश किसीका वियोग कराया होगा और मैंने उस बातकी उपेक्षा की होगी, उसीका यह अकथनीय फल मिला है । हाय ! दुर्देवसे उत्पन्न हुआ अथवा मानो मूर्तिमंत दुर्भाग्य ही हो, ऐसा तेरा यह ति. बचपन कैसे दूर होगा ? " वह इस तरह विलाप कर ही रही थी कि इतनेमें सन्मित्रकी भांति खेद दूर करनेवाले चन्द्रचूडदेवताने उस हंसिनी पर जल छिडक कर उसे अपनी शक्तिसे पूर्ववत् कन्या बनाई। कुमारआदिको हर्ष उत्पन्न करनेवाली वह कन्या उस समय ऐसी दमकने लगी मानो नई सरस्वती ही उत्पन्न हुई है अथवा लक्ष्मी ही समुद्रमेंसे निकली है ! उसी समय दोनों बहिनोंने हर्षसे रोमांचित हो एक दूसरेको गाढ आलिंगन कर लिया । प्रेमकी यही रीति है।
रत्नसारकुमारने कौतुकसे कहा- "हे तिलकमंजरी ! हमको इस कार्यके उपलक्षमें पारितोषिक अवश्य मिलना चाहिये, हे चन्द्रमुखी ! कह क्या देना चाहती है ? जो कुछ देना हो वह शीघ्र दे, धर्मकी भांति औचित्यदान लेनमें विलम्ब कौन