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________________ (५६२) कुमारके मुखको देखती हुई तथा भयसे कांपती हुई मनुष्यभाषासे बोलने लगी कि, “ शक्तिशालीलोगोंकी पंक्तिमें माणिक्य रत्न समान, शरणवत्सल, हे कुमार ! मेरी रक्षा कर । मैं तुझे मेरी रक्षा करनेके सर्वथा योग्य समझकर तेरी शरणमें आई हूं कारणकि, महान्पुरुष शरणागतके लिये वज्रपंजर ( वज्रके पिंजरे ) के समान है. किसी समय व किसी भी स्थान में पवन स्थिर हो जाय, पर्वत हिलने लगे, बिना तपाये स्वाभाविक रीति ही से जल अग्निकी भांति जलने लगे, अग्नि बर्फके समान शीतल हो जाय, परमाणुका मेरु बन जाय, मेरु परमाणु हो जाय, आकाशमें अद्धर कमल ऊगे तथा गधेको सींग आजाय, तथापि धीरपुरुष शरणागतको कल्पान्त पर्यंत भी नहीं छोडते. व शरणमें आये हुए जीवोंकी रक्षा करने के निमित्त विशालसाम्राज्यको भी रजःकणके समान गिनते हैं. धनका नाश करते हैं, और प्राणको भी तृणवत् समझते हैं." यह सुन रत्नसारकुमार उस हंसिनाके कमलसदृश कोमल परों पर हाथ फिराकर कहने लगाकि,- "हे हंसिनी ! भयातुर न हो. मेरी गोदमें बैठे रहते कोई राजा, विद्याधरेश तथा वैमानिकदेवताओंका अथवा भवनपतिका इन्द्र भी तुझे हरण करनेको समर्थ नहीं. मेरी गोदमें बैठी हुई होते तू शेषनागकी कुंचकीके समान श्वेत तेरे युगलपंखोंको क्या धूजाती है ?" यह कह कुमारने उसे सरोवरमेंसे निर्मल जल और सरस कमल
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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