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________________ (५३५) दक वचन सुनाकर उसकी सहायता भी करूंगा" श्रेष्ठीने अपने अभिप्रायानुसार तोतेकी बात सुनकर कहा कि, " हे श्रेष्ठ तोते ! तूने ठीक कहा--तेरा मन बहुत शुद्ध है. इसलिये हे वत्स ! अब तू शीघ्र जा। और अतितीव्रवेगसे जाने वाले रत्नसारकुमारको बिकटमार्गमें सहायता कर लक्ष्मणके साथ होने से जैसे राम सुख में वापस आये, उसी प्रकार तेरे समान प्रियमित्र साथ होनेसे वह अपनी इच्छा पूर्ण करके निश्चय सुखपूर्वक यहां आजावेगा।" श्रेष्ठीकी आज्ञा मिलते ही अपनेको कृतार्थ माननेवाला वह मानवंत तोता, संसारमेंसे जैसे सुबुद्धि मनुष्य बाहर निकलता है, उस प्रकार शीघ्र पीजरेमेंसे बाहर निकला और बाणके समान तीव्रगतिसे उडकर शीघ्र ही कुमारको आ मिला । कुमारने अपने लघुभ्राताकी भांति प्रेमसे बुलाकर गोदमें बिठा लिया। उस अश्वने मानो मनुष्यरत्न ( रत्नसार ) की प्राप्ति होनेसे अपरिमित अहंकारमें आ कर वेगसे गमन कर कुमारके मित्रोंके अश्वोंको नगरकी सीमाके ही भागमें छोड दिये। जिससे निरुत्साहित हो वे विलक्ष होकर वहीं खडे रह गये । अतिशय उछल कर तथा शरीरसे प्रायः अधर चलने वाला वह अश्व मानो शरीरमें रज लग जानेके भयसे भूमिको स्पर्श भी नहीं करता था। उस समय नदियां, पर्वत, जंगलकी भूमिआदि मानो उस अश्वके साथ स्पर्धासे वेगपूर्वक चलती हों इस
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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