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________________ (५०२) अर्थः-यद्यपि श्रावकके मन में अन्यदर्शनीमें भक्ति नहीं तथा उसके गुणमें भी पक्षपात नहीं; तथापि अतिथिका उचित आदर करना गृहस्थका धर्म है ॥ ४३ ॥ गेहागयागमुचिअं, वसणावडिआण तह समुद्धरणं ॥ दुआिण दया एसो, सव्वेसि संमओ धम्मो ॥ ४४ ॥ अर्थः--अतिथि ( घर आया हुआ ) के साथ उचितआचरण करना, अर्थात् जिसकी जैसी योग्यता हो उसके अनुसार उसके साथ मधुरभाषण करना, उसको बैठनेके लिये आसन देना, असनादिकके लिये निमन्त्रण करना, किस कारणसे आगमन हुआ ? सो पूछना, तथा उनका कार्य करना इत्यादि उचितआचरण है. तथा संकटमें पड़े हुए लोगोंको उसमेंसे निकालना और दीन, अनाथ, अंधे, बहिरे, रोगी आदि लोगों पर दया करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें दुःखमेंसे निकालना. यह धर्म सर्वदर्शनियोंको सम्मत है. यहां श्रावकोंको ये लौकिक उचितआचरण करनेको कहा, इसका यह कारण है कि जो मनुष्य उपरोक्त लौकिक उचितआचरण करनेमें भी कुशल नहीं वे लोकोत्तरपुरुषकी सूक्ष्मबुद्धिसे ग्रहण हो सके ऐसे जैनधर्म में किस प्रकार कुशल हो सकते हैं ?,- इसलिये धर्मार्थीलोगोंने उचितआचरण करने में अवश्य निपुण होना चाहिये. और भी कहा है कि
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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