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________________ (४९७) अर्थः--नागरलोगोंके सम्बन्धमें उचितआचरण इस प्रकार हैं:--पुरुषने उन पर ( नागरलोगों पर ) दुःख आने पर स्वयं दुःखी होना, तथा सुखमें स्वयं सुखी होना. वैसेही वे संकटमें होवें तो आपने भी आपत्ति ग्रसितकी भांति बर्ताव करना तथा वे उत्सवमें हों तो स्वयं भी उत्सव में रहना. इसके विरुद्ध यदि एकही नगरके निवासी समव्यवसायी लोग जो कुसंपने रहें तो राज्याधिकारी लोग उनको इस भांतिमें संकटजालमें फंसाते हैं, जिस तरह कि पारधी मृगोंको. ॥ ३६ ॥ कायव्वं कज्जेऽव हु, न इक्कमिक्केण दसणं पहुणो ॥ कजो न मंतभेओ, पेसुन्नं परिहरेअव्वं ॥ ३७ ।। अर्थः--बडा कार्य होवे तो भी अपना बडप्पन बढाने के लिये समस्तनागरोंने राजाकी भेंट लेनेके लिये पृथक् पृथक् न जाना. किसी कार्यकी गुप्त सलाह करी होवे तो उसे प्रकट न करना तथा किसीने किसीकी चुगली न करना. एक एक मनुष्य पृथक् २ राजाको मिलने जावे तो उससे एक दूसरेके मनमें वैरआदि उत्पन्न होता है, अतएव सबने मिलकर जाना चाहिये, तथा सबकी योग्यता समान होने पर भी किसी एकको मुख्य ( अगुआ) कर बाकी सबने उसके साथ रहना; राजाके हुक्मसे मंत्री द्वारा परीक्षा करनेके लिये दी हुई एक शय्या पर सोनेके लिये विवाद करनेवाले पांचसौ मूर्ख सुभटोंकी
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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