SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २७ ) भी यह कैसा साहस ! उसके मन में जराभी डर नहीं ! उसे अपने स्वामीके राज्य हरणकी अभिलाषा हुई! यह उसका कितना भारी अन्याय ! अथवा चन्द्रशेखरका क्या दोष ? नायक रहित राज्यको लेने की बुद्धि किसे नहीं होती ? कोई रखवाला नहीं होवे तो खेतको सूअरके समान क्षुद्र प्राणी भी क्या नहीं खा जाते ? अथवा विवश होकर राज्यकी ऐसी अवस्था करनेवाले मुझे ही धिक्कार है। कोई भी कार्य में विवेक न करना यह सर्व आपदाओंकी वृद्धि करनेवाला है । विवेक बिना कुछ भी करना धरोहर रखना, किसी पर विश्वास करना, देना, लेना, बोलना, छोडना, खाना आदि सब मनुष्यको प्रायः पश्चाताप पैदा करते हैं कहा है किसगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजात, परिणतिरवधार्या यत्नतः पंडितेन अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः गुणयुक्त अथवा गुणरहित कोई भी कार्य करना हो तो बुद्धिमान मनुष्यको चाहिये कि कार्य आरंभ करनेके पहिले उसका परिणाम सोचना चाहिये। जिस भांति हृदयादि मर्मस्थलमें घुसा हुआ शस्त्र मरण तक हृदयको पीडा करता है उसी भांति विवेक बिना एकाएक कोई कार्य करनेसे भी मरण पर्यत क्लेश होता है।" - इस तरह राज्यकी आशा छोड मनमें नाना प्रकारके पश्चात्ताप करते मृगध्वज राजाको तोतेने कहा कि, "हे राजन् ! व्यर्थ
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy