SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४६६) अनुकूल भोजन, शय्या, वस्त्र, उवटन आदि वस्तुएं देना. तथा उनके अन्यकार्योको, कभी अवज्ञा, तिरस्कार न करके स्वयं सविनय करना, नौकरोंआदिसे न कराना. कहा है कि-पुत्र पिताजीके सन्मुख बैठा हो उस समय उसकी जो शोभा दीखती है उसका शतांश भी, चाहे वह किसी ऊंचे सिंहासन पर बैठ जाय, नहीं दीख सकता । तथा मुखमेंसे बाहर निकलते न निकलते पिताजीके वचनको स्वीकार कर लेना चाहिये. याने पिताजीका वचन सत्य करनेके निमित्त राज्याभिषेक ही के अवसर पर बनवासके लिये निकले हुए रामचंद्रजीकी भांति सुपुत्रने पिताजीके मुख मेंसे वचन निकलते ही आदरपूर्वक उसके अनुसार आज्ञा पालन करना, किसी प्रकार भी आनाकानी करके उनके वचनोंकी अवज्ञा न करना चाहिये. (३) वित्तंपि हु अणुअत्तइ, सञ्चपयत्तेण सबकज्जेसु ॥ उवजीवइ बुद्धिगुणे, निअसब्भावं पयासेइ ॥ ४ ॥ अर्थ:--सुपात्रपुत्रने प्रत्येककार्यमें पूर्णप्रयत्नसे पिताजीको पसंद आवे वह करना. अर्थात् अपनी बुद्धिसे कोई आवश्यक कार्य सोचा हो, तो भी वह पिताजीके चित्तानुकूल हो तभी करना. सुश्रूषा ( सेवा ), ग्रहण आदि तथा लौकिक और अलौकिक सर्व व्यवहारमें आनेवाले अन्य सम्पूर्ण बुद्धिके गुणोंका अभ्यास करना. बुद्धिका प्रथम गुण मातापिताआदिकी सेवा
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy