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________________ (४४२) दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो, गृहंति च्छलमाकलय्य हुतभुग भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भः सावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरते हठाद् , दुर्वृत्तास्तनया नयंति निधनं धिग् बह्वधीनं धनम् ॥१॥ __जिस धनको मनुष्य चाहते हैं, उस धनको चोर लूटें, किसी छलभेदसे राजा हरण कर लें, क्षणमात्रमें अग्निभस्म कर दे, जल डुबा दे, भूमिमें गाडा हो तो यक्ष हरण करे, पुत्र दुराचारी होवें तो बलात्कारसे कुमार्गमें उडा दें, ऐसे अनेकोंके अधिकारमें रहे हुए धनको धिक्कार है, अपने पुत्रको लाड लडाने वाले पतिको जैसे दुराचारिणी स्त्री हंसती है, वैसेही मृत्यु शरीरकी रक्षा करनेवालेको तथा पृथ्वी, धनकी रक्षा करनेवालेको हंसती है । कीडियोंका एकत्रित किया हुआ धान्य, मधुमक्खियोंका एकत्रित किया हुआ मधु और कृपणका उपार्जन किया हुआ धन ये तीनों वस्तुएं दूसरोंहीके उपभोगमें आती हैं. इसलिये धर्म अर्थ और कामको बाधा उत्पन्न करना यह वात गृहस्थको उचित नहीं. कदाचित् पूर्वकर्मके योगसे ऐसा हो तोभी उत्तरोत्तर बाधा होने पर भी शेषका रक्षण करना चाहिये । यथा:-- कामको बाधा होवे तो भी धर्म और अर्थकी रक्षा करना. कारण कि धर्म और अर्थकी भलीभांति रक्षा करनेही से काम ( विषयसुख ) सुखसे मिल सकता है. वैमेही अर्थ और काम
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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