SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४०९) मलीन था उसे बाहर बैठाया. इत्यादि । कहा है कि उचिअं मुत्तूण कलं, दव्वादिकमागयं च उक्करिसं ॥ निवडिअमवि जाणतो, परस्स संतं न गिहिज्जा ॥१॥ _प्रति सैंकडे चार पांच टका तक उचित ब्याज अथवा " ब्याजमें दूना मूल द्रव्य होजाय” ऐसा वचन है, जिससे उधार दिये हुए द्रव्यकी दुगुनी वृद्धि और उधार दिये हुए धान्यकी तिगुनी वृद्धि हो उतना लाभ लेना चाहिये. तथा जो गणिमधरिमादिवस्तुका सर्वत्र किसी कारणसे क्षय होगया हो, और अपने पास होवे तो उसका ऊंचे भावसे जितना उत्कृष्ट लाभ होवे, उतना लेना; परन्तु इसके सिवाय अन्य लाभ नहीं लिया जा सकता. तात्पर्य यह है कि, यदि किसी समय भाविभावसे सुपारीआदि वस्तुका नाश होनेसे अपने पासकी संगृहीत वस्तु बेचते दूना अथवा उससे भी अधिक लाभ होवे, वह मनमें शुद्ध परिणाम रखकर लेना, परन्तु "सुपारीआदि वस्तुका सर्वत्र नाश हुआ, यह ठीक हुआ. " ऐसा चिन्तवन न करना. वैसेही किसी भी जगह पड़ी हुई दूसरेकी वस्तु न उठाना. ब्याज, बट्टा अथवा क्रयविक्रयआदि व्यापारमें देश, कालआदिकी अपेक्षासे उचित तथा शिष्टजनोंको निंदापात्र न होवे उस रीतिसे जितना लाभ मिले उतनाही लेना; ऐसा प्रथमपंचाशककी वृत्तिमें कहा है. वैसेही खोटी तराजू, बाट व खोटे माप रखकर न्यूनाधिक
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy