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विवेकी पुरुषने काजलका क्षय और बामेल ( सर्पका वाल्मीक ) की वृद्धि देखकर दान व पढना इत्यादि शुभकृत्योंसे अपना दिवस सफल करना चाहिये. अपनी स्त्री, भोजन और धन इन तीनों वस्तुओंमें संतोष रखना चाहिये. अर्थात् इन तीनोंका विशेष लोभ न रखना, परन्तु दान, पढना और तपस्या इन तीन वस्तुओं में संतोष न रखना अर्थात् इनकी नित्य वृद्धि करना चाहिये. मानों मृत्युने अपने मस्तक के केश पकडे हों, ऐसा सोचकर धर्मकृत्य उतावल से करना चाहिये, और कायाको अजरामर समझ विद्या तथा धनका उपार्जन करना. साधुमुनिराज जैसे जैसे अधिक रुचिसे नये नये श्रुत ( शास्त्र ) में प्रवेश करते हैं, वैसे २ अपने संवेगीपन पर नई २ श्रद्धा उत्पन्न होनेसे उनको बडा ही हर्ष होता है. जो जीव इस मनुष्य भव में प्रतिदिवस नया नया पढता है, वह परभवमें तीर्थंकरत्वको प्राप्त होता है. अब दूसरेको जो पढावे, उसका ज्ञान श्रेष्ठ फल देता है यह कहने की तो आवश्यकता ही क्या रही ? थोडी बुद्धि होनेपर भी जो पाठ करनेका नित्य उद्यम करे, तो माषतुषादिककी भांति उसी भवमें केवलज्ञानादिकका लाभ होता है ऐसा जानों ।
ऊपर कहे अनुसार धर्मक्रिया कर लेनेके अनन्तर राजा आदि होवे तो अपने राजमंदिरको जावे. मंत्रीआदि होवे तो न्याय - सभाको जावे, और वणिकआदि होवे तो अपनी दूकान