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________________ (३६२) श्रेष्ठिने दासीद्वारा किसी भिक्षुकको भिक्षा देनेके समान भगवान्को कुल्माष ( उडदके बाकुले ) दिलवाया. भगवंतने उसीसे पारणा किया, अभिनवश्रेष्ठीके घर पंच दिव्य प्रकट हुए, उस समय देवदुंदुर्भाका प्रकट हुआ शब्द जो जीणश्रेष्ठी न सुनता, तो अवश्य ही केवलज्ञान भी पा जाता; परन्तु दुंदुभीका स्वर सुनते ही भावना खंडित होगई, ऐसा ज्ञानी कहते हैं । साधुमुनिराजको आहार वहोरानेके विषयमें श्रीशालिभद्रआदिका और रोगादिपर औषध, भैषज देनेके विषय में श्रीवीरभगवान्को औषध देनेवाली तथा जिननाम कर्म बांधनेवाली रेवतीका दृष्टान्त जानो. रोगी साधुकी सुश्रूषा ( सार सम्हाल ) करनेमें बहुत फल है, सिद्धान्त में कहा है कि- हे गौतम ! जो जीव रुग्णसाधुकी सेवा सुश्रूषा करता है, वह मेरे दर्शन ( शासन ) को मानता है, और जो मेरे दर्शनको मानता है, वह रुग्णसाधुकी सेवा सुश्रूषा करता है. कारण कि, अरिहंतके दर्शनमें शासनकी आज्ञानुसार चलना ही प्रधान है. ऐसा निश्चयपूर्वक जानो, इत्यादि. इसपर कृमिकुष्ठरोगसे पीडित साधुकी सेवा सुश्रुषा करनेवाले ऋषभदेवके जीव जीवानन्दवैद्यका दृष्टान्त जानो. वैसे ही सुश्रावकने सुपात्रसाधुओंको उचित स्थानमें उपाश्रय आदि देना. कहा है किः " वसहीसयणासणभत्तपाणभेसज्जवत्थपत्ताई । जइवि न पजत्तधणो, थोवावि हु थोवयं देइ ॥१॥
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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