________________
(३६१)
वहोरे, तो भी कहनेवाले श्रावकको पुण्यलाभ तो होता ही है। कहा है कि
मनलापि भवेत्पुण्यं, वचसा च विशेषतः। कर्तव्येनापि तद्योगे, स्वर्द्धमोऽभूत्फलेग्रहिः ॥१॥"
साधुमुनिराजको वहोरानेकी बातका मनमें चिन्तवन मात्र करनेसे भी पुण्य होता है, जो वचनसे वहोरानेकी बात कहे तो विशेष पुण्य होता है; और जो वैसा योग बनजावे तो मानो कल्पवृक्ष ही मिलगया ऐसा समझना चाहिये । जिस वस्तुका योग होवे, और जो श्रावक उस वस्तुका नाम लेकर न कहे तो वस्तु प्रत्यक्ष दीखनेपर भी साधु नहीं वहोरते, इससे बडी हानि होती है. निमंत्रणा करनेके बाद जो कदाचित् साधु मुनिराज अपने घर न आयें, तो भी निमंत्रणा करनेवालेको पुण्यलाभ तो होता ही है तथा विशेषभाव होनेपर अधिक पुण्य होता है. जैसे वैशालीनगरीमें श्रीवीरभगवान् छमस्थअवस्थामें चौमासीतप करते थे तब जीर्णश्रेष्ठी नित्य भगवान्को पारणेके निमित्त निमंत्रण करने आता. चौमासीतप पूर्ण हुआ उस दिन जीर्णश्रेष्ठीने समझा कि, 'आज तो स्वामी निश्चय पारणा करेंगे.' यह विचार कर वह बडे आग्रह पूर्वक निमंत्रणा कर अपने घर गया, और मैं धन्य हूं. आज स्वामी मेरे घर पारणा करेंगे.' इत्यादि भावनाओंसे उसने अच्युतदेवलोकका आयुष्य बांधा । पारणेके दिन मिथ्यादृष्टि अभिनव