________________
(३५७) का ज्ञान हो, तो भी केवल उस ज्ञान ही से मनुष्यको भोगसे मिलनेवाला सुख प्राप्त नहीं होता. वैसेही कोई पुरुष तैरना जानता हो, तो भी जो नदीमें गिरकर शरीरको नहीं हिलावे तो वह नदीके प्रवाहमें वह जाता है, इसी रीतिसे ज्ञानवान् पुरुष धर्मक्रिया न करे, तो संसारसमुद्रमें गोते खाता है । दशाश्रुतस्कंधकी चूर्णिमें कहा है कि--जो अक्रियावादी हैं, वे भव्य हों, अथवा अभव्य हों, परन्तु नियमसे कृष्णपक्षके तो होते ही हैं, और क्रियावादी नियम से भव्य व शुक्लपक्ष ही का होता है। वे सम्यग्दृष्टि हों अथवा मिथ्यादृष्टि हो तो भी वे पुद्गलपरावर्तके अन्दर सिद्ध होवेंहीगे। इसपरसे यह न समझना कि 'ज्ञान बिनाकी क्रिया भी हितकारी है, कहा है कि
" अन्नाणा कम्मखओ, जायइ मंडुक्कचुण्णतुल्लत्ति । सम्मकिरिआइ सो पुण, नेओ तच्छारसारिच्छो ॥१॥ जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुआहिं वासकोडीहिं ।। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ।। २॥"
ज्ञान रहित क्रियासे जो कर्मका क्षय होता है, वह मंडूकचूर्णके समान है, और ज्ञानपूर्वक क्रियासे जो कर्मका क्षय होता है वह मंडूकभस्मके समान है। अज्ञानी जीव करोडों वर्षोंसे जितने कमका क्षय करता है, उतने कर्मको मन, वचन, कायाकी गुप्ति रखनेवाला ज्ञानी एक उश्वासमें क्षय करदेता है. इसी लिये तामलितापस, पूरणतापस इत्यादि लोगोंने तपस्याका महान्