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जिनदासश्रेष्ठीने तो एक दिन विचार किया कि, “साधारणद्रव्य तो सातक्षेत्रमें वपराता है इसलिये श्रावक भी इसे वापर सकता है, और मैं भी श्रावक हूं, अतएव मैं अपने काममें • उपयोग करूं तो क्या हरकत है ?" यह सोच कुछ आव. श्यक कार्य होनेसे तथा पासमें अन्य द्रव्य न होनेसे उसने साधारणद्रव्यमेंके बारह द्रम्म गृहकार्यमें व्यय किये । यथाक्रम वे दोनों जने मृत्युको प्राप्त होकर, उस पापसे प्रथमनरकको गये । वेदान्तीने भी कहा है कि- प्राण कंठगत हो जाय, तो भी साधारणद्रव्यकी अभिलाषा न करना । अग्निसे जला हुआ भाग ठीक हो जाता है, परन्तु साधारणद्रव्यके भ. क्षणसे जो जला, वह पुनः ठीक नहीं होता । साधारणद्रव्य, द. रिद्रीका धन, गुरुपत्नी और देवद्रव्य इतनी वस्तुएं भोगनेवालेको तथा ब्रह्महत्या करनेवालेको स्वर्गमेंसे भी ढकेल देते हैं । नर्कमेंसे निकल कर वे दोनों सर्प हुए। वहांसे निकल दूसरी नरकमें नारकी हुए, वहांसे निकल गिद्ध पक्षी हुए, पवात् तीसरी नरकमें गये । इस तरह एक अथवा दो भवके अन्तरसे सातों नरकमें गये । तदनन्तर एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइंद्रिय, चौरेंद्रिय और पंचेंद्रिय तथा तियग्योनिमें बारह हजार भव करके उनमें अत्यन्त अशातावेदनीय कर्म भोगा, जिससे बहुत बहुत कुछ पाप क्षीण हुआ, तब जिनदत्तका जीव कर्मसार व जिनदासका जीव पुण्यसार ऐसे नामसे तुम उत्पन्न हुए.