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श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं, मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ॥ ३ ॥
जो वणिक् वायुके समान चंचल, निर्वाणको अंतराय करनेवाले, बहुतसे नायकोंके आधीन रहे हुए, स्वल्प व असार ऐसे धनसे स्थिर, मोक्षको देनेवाला स्वतंत्र अत्यंत व सारभूत ऐसी जिनेश्वरभगवान्की पूजा करके निर्मल पुण्य उपार्जित करता है, वही वणिक् वाणिज्यकर्ममें अतिनिपुण है।
श्रद्धावन्त मनुष्य "जिनमंदिरको जाऊंगा" ऐसा विचार करनेसे एक उपवासका, जानेके लिये उठते छट्टका, जानेका निश्चय करते अट्ठमका, मार्गमें जाते चार उपवासका, जिनमंदिरके बाहर भागमें जाते पांच उपवासका मंदिरके अन्दर जाते पंद्रह उपवासका और जिनप्रतिमाका दर्शन करते एकमासके उपवासका फल आता है। पद्मचरित्रमें तो इस प्रकार कहा है कि:-- (तीर्थादिमें श्रद्धावन्त श्रावक "जिनमंदिरको जाऊंगा" ऐसा मनमें विचारनेसे एक उपवासका, मार्गको जाने लगनेसे तीन उपवासका, जानेसे चार उपवासका, थोडा मार्ग उल्लंघन करनेसे पांचउपवासका, आधा मार्ग जानेसे पंद्रह उपवासका, जिनभवनका दर्शन करनेसे एक मासके उपवासका, जिनमंदिरके अंगनेमें प्रवेश करनेसे छः मासके उपवासका, मंदिरके बाहर जाते बारह मासके उपवासका, प्रदक्षिणा देनेसे सौ वर्षके उपवासका, जिनप्रतिमाकी पूजा करनेसे हजार वर्षके उपवासका फल पाता है,