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________________ (२६६) उस कुत्तीको खाने-पीनेको देती और स्नेहसे कहती कि, 'हाहा! धर्मिष्ठ ! तूने क्यों ऐसा व्यर्थ द्वेष किया. जिससे तेरी यह अवस्था हुई.' ये वचन सुन तथा अपने चैत्यको देखकर उसे ( कुत्तीको ) जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ. तब संवेग पा उसने सिद्धादिककी साक्षीसे अपने किये हुए दोष आदि अशुभकर्मोकी आलोचना की, और अनशन कर मृत्युको प्राप्त होकर वैमानिक देवता हुई. द्वेषके ऐसे कडवे फल हैं. इसलिये द्वेषको त्याग देना चाहिये । यह सब द्रव्यपूजाका अधिकार कहा । इस जगह सर्व भावपूजा और जिनेश्वरकी आज्ञा पालना इसे भावस्तव जानना. जिनाज्ञा भी स्वीकाररूप तथा परिहाररूप ऐमी दो प्रकारकी है जिसमें शुभकर्मका सेवन करना वह स्वीकाररूप आज्ञा है और निषिद्धिका त्याग करना वह परिहाररूप आज्ञा है. स्वीकाररूप आज्ञाकी अपेक्षा परिहाररूप आज्ञा श्रेष्ठ है. कारण कि, निषिद्ध प्राणातिपात आदि सेवन करनेवाला मनुष्य चाहे कितना ही शुभ कर्म करे, तो भी उससे विशेष गुण नहीं होता. जैसे रोगी मनुष्य के रोगकी चिकित्सा औषधिक स्वीकार व अपथ्यके परिहार इन दो रीतिसे की जाती है. रोगीको बहुतसी औषधि देते हुए भी जो वह अपथ्य करे तो उसे आरोग्यलाभ नहीं होता. कहा है कि बिना औषधिके केवल पथ्य ही से व्याधि चली जाती है, परंतु पथ्य न करे तो सैकड़ों औषधियोंसे भी व्याधि नहीं जा सकती. इसी भांति जिन
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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