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(२३७) गीत, नाटक आदि जो अग्रपूजामें कहा है वह भावपूजामें भी आता है. वे ( गीत, नाटक ) महान फलके कारण होनेसे मुख्यमार्गसे तो उदायनराजाकी रानी प्रभावतीकी भांति स्वयं ही करना । निशीथचूर्णिमें कहा है कि-प्रभावती रानी स्नान कर, कौतुक मंगल कर, उज्वल वस्त्र पहिर यावत् अष्टमी तथा चतुर्दशीकों भक्तिरागसे स्वयं ही रात्रिमें भगवानका नाटकरूप उपचार, करती थी और राजा ( उदायन ) भी रानीकी अनुवृत्ति से स्वयं मृदंग बजाता था।
पूजा करनेके समय अरिहंतकी छमस्थ, केवली और सिद्ध इन तीन अवस्थाओंकी भावना करना। भाष्य में कहा है कि
ण्हवणच्चगेहिं छ उमस्थवत्थ पडिहारगेहिं केवलिअं। पलिअंकुस्सग्गेहि अ, जिणस्स भाविज सिद्धत्तं ॥१॥
अर्थः-प्रतिमाके ऊपर भगवानको स्नान करानेवाले परिवारमें रचे हुए जो हाथमें कलश ले हाथी ऊपर चढे हुए ऐसे देवता, तथा उसी परिवारमे रचे हुए जो फूलकी माला धारण करनेवाले पूजक देवता, उनका मनमें चितवन कर भगवानकी छद्मस्थ अवस्थाकी भावना करना। छमस्थ अवस्था तीन प्रकारकी है। एक जन्मावस्था, दूसरी राज्यावस्था और तीसरी श्रामण्यावस्था-उसमें परिवारमें रचित स्नान करानेवाले देवताके ऊपरसे भगवानकी जन्मावस्थाकी भावना करना । परिवारमें रचे हुए ही मालाधारक देवताके ऊपरसे भगवानकी