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________________ (१६७) नीतोदक धुएंसे कुछ धूम्रवर्ण तथा सूर्यकिरणके सम्बन्धसे कुछ २ गरम होता है, इससे अचित्त है,इसलिये लेनमें (संयमकी) कुछ भी विराधना नहीं। कोई कोई कहते हैं कि, उसे अपने पात्रमें ग्रहण करना। यहां आचार्य कहते हैं कि, नीत्रोदक अशुचि हानस अपने पात्र में लेनेकी मनाई है. इसलिये गृहस्थकी कुंडी आदि ही में लेना । वृष्टि हो रही हो उस समय वह मिश्र होता है। इसलिये वृष्टि बंद होनेके दो घडी पश्चात् लेना। शुद्धजल तीन उकाले आने पर अचित्त होता है, तो भी तीन प्रहर के अनन्तर वह पुनः सचित्त होजाता है, इसलिये उसमें राख डालना जिससे वह जल स्वच्छ भी रहता है । ऐसा पिंडनियुक्तिकी वृत्तिमें कहा है। तंडुलोदक पहिला, दूसरा और तीसरा तत्कालका निकाला हुआ होवे तो मिश्र और निकालनेके पश्चात् बहुत समय तक रहा हो तो अचित्त होता है । चौथा, पांचवां इत्यादि तंडुलोदक बहुत समय रहने पर भी सचित्त होता है । प्रवचनसारोद्धारादिक ग्रंथों में अचित्त जलादिकका कालमान इस प्रकार कहा है: " उसिणोदयं तिदंडुक्कलिअं फासुअजलं जईकप्पं । नवरि गिलाणाइकए पहरतिगोवरिवि धरियव्वं ॥१॥ जायइ सचित्तया से, गिम्हासु पहरपंचगस्सुवरि । च उपहरुवरि सिसिरे, वासासु जलं तिप्रहरुवरि ॥ २ ॥"
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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