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(१३०) 'क' अर्थात् दुष्कर्मका क्षय करे, तथा इन्द्रियादिकका संयम करे उसे श्रावक कहते हैं।
श्राद्धशब्दका अर्थ. जिसकी सद्धर्ममें श्रद्धा है, वह 'श्राद्ध' कहलाता है। ( मूल शब्द श्रद्धा था उसमें " प्रज्ञाश्रद्धा वृत्तेर्णः” इस व्याकरणसूत्रसे 'ण' प्रत्यय लगाया, तो प्रत्यय के णकारका लोप और आदि वृद्धि होनेसे : श्राद्ध ' यह रूप होता है ) । श्रावकशब्दकी भांति ' श्राद्ध ' शब्दका उपरोक्त अर्थ भावश्रावक ही की अपेक्षासे है। इसीलिये गाथामें कहा है कि " यहां भाव श्रावकका अधिकार है।"
इस भांति चौथी गाथामें श्रावकका स्वरूप बताया । अब दिवसकृत्य, रात्रिकृत्य, आदि जो छः विषय हैं उसमेंसे प्रथम ‘दिवसकृत्य' की विधि कहते हैं:--
( मूल गाथा.) नवकारेण विबुद्धो, .. सरेइ सो सकुलधम्मनियमाई ॥ पडिकमिअ सुई पूइअ,
गिहे जिणं कुणइ संवरणं ॥५॥ भावार्थ:- " नमो अरिहंताणं " इत्यादि नवकारकी गणना करके जागृत हुआ श्रावक अपने कुल, धर्म, नियम इत्यादिकका चिन्तवन करे।