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________________ (१०५) किसीको ज्ञात न हो सका । तथा उस बालकको ले जाकर चन्द्रशेखरने अपनी स्त्री यशोमती के सुपुर्द किया । यशोमती अपने ही गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्रकी भांति उसका लालन-पालन करने लगी । स्त्रियोंमें स्नेह बहुत ही होता है । जब वह बालक चन्द्राङ्ग तरुणावस्थाको पहुंचा तो पतिवियोगसे पीडित यशोमती उसकी सुन्दर छबी देखकर विचार करने लगी कि, “जिसका पति हमेशा परदेशमें रहता है वह स्त्री जैसे पतिका मुंह नहीं देख सकती उसी भांति चन्द्रवतीमे आसक्त निज पति चन्द्रशेखरको मैं भी नहीं देख सकती, अतएव अपने हाथसे लगाये हुए वृक्षका फल जैसे स्वयं ही खाते हैं उसी भांति स्वयं पालन किये हुए इस सुन्दर तरुण पुत्रको ही पति मानकर पालन करनेका फल प्राप्त करू." यह विचार विवेक तथा चतुरताको कोनेमें पटक उसने पुत्रसे कहा कि, "हे भद्र ! जो तू मुझे अंगीकार करेगा तो तुझे सम्पूर्ण राज्य मिलेगा और मैं भी तेरे वश में रहूंगी" ऐसे वचन सुन कर अकस्मात् हुए भयंकर प्रहारसे पीडित मनुष्य की भांति दुःखित होकर चन्द्राङ्ग, कहने लगा. "" हे माता ! तूं ये कान से सुने भी नहीं जा सकते तथा मुखसे बोले भी नहीं जा सकते ऐसे अयुक्त वचन क्यों बोलती है ?" यशोमती कहने लगी कि, " हे सुन्दर ! मैं तेरी माता नहीं, बल्कि मृगध्वज राजाकी रानी चन्द्रवती तेरी माता है. यह सुन सत्य बात जानने के लिये सत्यप्रिय चन्द्राङ्कका मन बहुत
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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