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________________ ( ९४ ) अभागी हो परन्तु उसे तीर्थयात्राके समान धर्मकृत्य करने में विघ्न तो आते ही हैं, परन्तु उसमें अन्तर इतना रहता ही है कि भाग्यशालीको स्थानर पर सत्कार मिलता है और अभागेको पद पद पर तिरस्कार मिलता है । एक समय कोई पर्व आया उसके उद्देश्य से वायुवेग तथा शुकराज दोनों व्यक्ति विमानमें बैठकर तीर्थ चन्दन के लिये रवाना हुए। पीछेसे किसी स्त्रीने आवाज दिया कि " शुकराज, शुकराज !” जिसे सुन चकित हो दोनो जने खडे रहे और उसे पूछा कि, "तूं कौन है ?" उस स्त्रीने उत्तर दिया कि, "मैं चक्रेश्वरी नामक देवी हूं । सद्गुरुकी आज्ञाकी भांति गोमुख यक्षकी आज्ञासे मैं काश्मीर देशान्तर्गत विमलाचल तीर्थ पर रक्षा करनेके लिये जा रही थी । मार्ग में ज्यों ही मैं क्षितिप्रतिष्ठितनगर पर आई तो मैंनें उच्च स्वरसे रुदन करते हुए एक स्त्रीका आर्त्त शब्द सुना । उसके दुःख से दुःखित होकर मैं नीचे उतरी और उसे पूछा कि “हे कमलाक्षि ! तुझे क्या दुःख है ?" उसने उत्तर दिया कि -' मेरे शुकरराज नामक पुत्रको गांगलिऋषि अपने आश्रम में लेगया है । बहुत समय व्यतीत हुआ पर अभी तक उसका कुशल समाचार नहीं मिला। इससे मुझे महा दुःख हो रहा है ।" यह सुन मैंने कहा - "हे भद्रे ! तूं रुदन न कर मैं वहीं जाती हूं, वापस लौटते समय तक तेरे पुत्रका कुशल समाचार लेती आऊंगी । इस प्रकार उसका समाधान करके मैं विमलाचल तीर्थ पर
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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