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ऋषि बोले - " अहा ! बाल्यावस्था में भी यह कितना आश्चर्यकारी क्षत्रियतेज है ? सत्य है सूर्यकी भांति सत्पुरुषोंका तेज भी अवस्था की अपेक्षा नहीं रखता ।' '
राजा मृगध्वजने कहा कि, " बालक हंसराज कैसे भेजा जाय ? बालकके शक्तिमान होने पर भी पुत्रस्नेह वश मातापिता के मनमें तो शंका बनी ही रहती है। पुत्र स्नेह ऐसा है कि भय न होने पर भी उससे मातापिताको पद पद पर भय दृष्टि में आता है । क्या सिंहकी माता अपने पुत्रके सिंह होने पर भी उसके नाशकी शंका नहीं करती ?"
उसी समय सुदक्ष शुकराज उत्साहपूर्वक बोला --: हे तात! मैं प्रथम ही से विमलाचलतीर्थको वंदना करने की इच्छा करता हूं और यह अवसर भी आ मिला । जैसे नृत्य करनेके इच्छुक मनुष्य के कान में मृदंगका गंभीर शब्द पडे, क्षुधातुर पुरुषको भोजनका निमंत्रण आवें तथा निद्रा ग्रसित व्यक्तिको बिछा हुआ बिछौना मिले उसी प्रकार मुझे यह उत्तम साधन प्राप्त होगया है इसलिये आपकी आज्ञा से मैं वहां जाऊंगा " शुकराजके ये वचन सुनकर राजा मृगध्वज मंत्रियोंके मुखकी तरफ देखने लगा, तंत्र मंत्रीगण बोले -- "ऋषिश्रेष्ठ गांगलि ऋषि तो मांगनेवाले हैं, आप दाता हैं, तीर्थस्थानकी रक्षा करनेका कार्यहै तथा रक्षा करनेवाला शुकराज है; इस लिये हमको इस कार्य मैं सम्मति देना उचित ही हैं "