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________________ ( ८४ ) कहनेसे पूरा होता है वैसे घात प्रतिघातका बदला चुक गया। अब तुमने परस्पर बहुत प्रीति रखना, क्योंकि मित्रता इसलोक तथा परलोक में भी सर्व कार्योंकी सिद्धि करने वाली हैं, इसमें संशय नहीं ।" यह वचन सुनकर दोनोंने परस्पर अपने २ अपराघों की क्षमा मांगी और पूर्ववत् प्रीति रखने लगे । ग्रीष्मऋतुके अंतमें आई हुई प्रथम जलवृष्टिके समान सद्गुरुके वचनसे क्या नहीं हो सकता है ? तत्पश्चात् केवली भगवानने उपदेश किया कि, "हे भव्य जीवो ! तुम समकित पूर्वक जैनधर्मकी आराधना करो | जिससे तुम्हारे संपूर्ण इष्टकार्यो की सिद्धि होगी । धर्माः परे परा अप्याम्रादिकवत्फलंति नियतफलैः । जिनधर्मस्त्वखिलविधोऽप्यखिलफलैः कल्पइवफलदः ॥ १ ॥ अन्य धर्मोका चाहे भली भांति आराधन किया हो परन्तु वे केवल आम आदिके वृक्ष समान है अर्थात् जैसे आमका वृक्ष केवल आम फल देता है, जामुनका वृक्ष केवल जामुनफल देता है वैसे ही वे धर्म भी केवल नियमित फलके दाता हैं, परन्तु यदि जैनधर्मकी संपूर्णतः आराधना की जावे तो वह कल्पवृक्षकी भांति मनवांछित फल देता है." मोक्षाभिलाषी राजा आदि सर्व लोगोंने यह उपदेश सुन कर केवली भगवान के पास सम्यक्त्व मूल बारह व्रत ग्रहण किये । उस व्यंतर ( बन्दर के जीव ) तथा सुवर्णरेखाने भी
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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