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________________ ( ८१ ) बात है कि जो कर्म केवल मन अथवा वचनसे संचित होते हैं, उनकी अगर आलोचना न होवे तो कायासे इस तरह भोगना पडते हैं । तूं ने पूर्व भवके अभ्याससे इन दोनों पर काम वासना रक्खी। जैसा अभ्यास होता है वैसा ही संस्कार पर भव में प्रकट होता है । धर्म संस्कार तो अधिकाधिक अभ्यास होने पर भी प्रकट नहीं होते, परन्तु कच्चे-पक्के सामान्य संस्कार तो पर भवमें आगे आगे दौड़ते हैं । केवली भगवान के ये वचन सुनकर श्रीदत्तको संसार पर वैराग्य तथा खेद उत्पन्न हुआ । उसने पुनः पूछा कि, "हे महाराज ! संसारसे मुक्त होनेका कोई उपाय बतलाइये | जिसमें ऐसी विडंबना होती है उस स्मशान समान संसार में कौन जीवित व्यक्ति सुख पा सकती है ?" मुनिराजने कहा :- " संसाररूप गहन वनसे मुक्त होनेका चारित्र ही केवल उत्तम साधन है; इसलिये तू शीघ्र चारित्र ग्रहण करने का प्रयत्न कर." श्रीदत्तने कहा - "बहुत अच्छा, पर इस कन्याको कोई योग्य स्थल देख कर देना है, कारण कि इसकी चिन्ता मुझे संसार सागर में तैरवे गलेमें बंधे हुए पत्थरके समान हैं" मुनिराज बोले कि "हे श्रीदत्त ! तूं व्यर्थ पुत्रीकी चिन्ता न कर, कारण कि तेरी पुत्री के साथ तेरा मित्र शंखदत्त विवाह करेगा." श्रीदत्तने आंखों में आंसू भरकर गद्गद स्वरसे कहा कि "हे महाराज ! मुझसे क्रूर व पापीको वह मित्र कहांसे
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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