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________________ २२ / योग- प्रयोग- अयोग व्यवहार जगत में प्रत्येक मानव को बोलना आवश्यक है। बिना बोले जीवनचर्या का निर्वाह कैसे हो सकता है ? समस्या समाधान, तर्क-वितर्क, संकल्प-विकल्प, कल्पना-स्मृति इत्यादि का माध्यम व्यक्त-अव्यक्त वाणी ही है। सत्-असत् किसी न किसी रूप में वह साकार होती रहती है। सामान्यतः वाणी के चार स्तर है- सत्य वचन, असत्य वचन, मिश्र (सत्य-असत्य) वचन, व्यवहार वचन । इनमें से सत्य वचन को छोड़कर अंतिम तीन सर्व सामान्य सभी मानव में पाये जाते हैं । जैसे- १. व्यक्ति बोलता है, २. व्यक्ति को बोलना पड़ता है, ३. बोलना आवश्यक है। मानवीय चेतना ने बोलना अनिवार्य मान लिया है, बोलने को ही प्राथमिकता दे दी है, फलतः हमारी वाणी सीमातीत हो जाती है अनर्गल, अनावश्यक क्लेशयुक्त वाणी के प्रयोग से आपस में वैर-भाव की श्रृंखला बढ़ जाती है, मानसिक क्षमता क्षीण हो जाती है। जो कार्य अल्प समय में हो सकता है वह या तो अधिक समय या असमर्थ हो जाता है। अधिक बोलने से शक्ति क्षीण हो जाती है और सारा कार्य अस्त-व्यस्त हो जाता है । श्रृंगार रस से ओत-प्रोत कामोत्तेजक वाणी आसक्ति को जागृत करती है। आसक्ति से शरीर, मन, बुद्धि आदि का ह्रास होता है। इतना ही नहीं आसक्ति शरीर को आलसी, इन्द्रियों को विलासी, मन को चंचल और बुद्धि को मूढ़ बना देती है । प्रथम सत्य वचन विशेष व्यक्ति में पाया जाता है। इस सत्य वचन को ही शुभ वचन योग कहते हैं । इसी शुभ वचन योग से मौन का प्रयोग और मौन प्रयोग से निर्विकार रूप अयोग अवस्था प्राप्त हो सकता है । अशुद्धि का अनुभव जिस ज्ञान के प्रयोग से होता है, उसी ज्ञान में वाणी की शुद्धि का उपाय भी विद्यमान है। शुद्धि का उपाय चरितार्थ करने का सामर्थ्य हर साधक में है, आवश्यकता है साधक अशुद्धि की अनुभूति को जाने और शुद्धि के प्रयोगों को सर्वदा समर्थ समझे । असत् वाणी का निरीक्षण और परीक्षण जब तक होता रहेगा, निश्चित सत् और असत् मिश्रित वाणी की अनुभूति होती जायेगी । मिश्र वाणी से सत्य वाणी और निर्विचार तक पहुँचने का प्रयत्न करना है। असत् वाणी का प्रयोग अज्ञानी के लिए है मिश्र या सत्य का प्रयोग पंडित विद्वान या ज्ञानी के लिए है किन्तु निर्विचार का प्रयोग योगी के लिए है । 1 वचन योग का अभिप्राय वाणी संयम है। संयम का प्रयोग जब अपने अंतिम लक्ष्य पर पहुँच जाता है तब वचन निरोध की भूमिका प्रारम्भ होती है। वचन योग का विशेष कार्य है निरोध । जब तक निरोध आदि पर ध्यान नहीं होता तब तक वाणी शोधन से निर्विचार का प्रयोग आवश्यक है।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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