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________________ योग- प्रयोग - अयोग / २३ निर्विचार अर्थात् वाणी का व्यक्त अव्यक्त मौन । मौन वाणी का निरोध व्यापार है। वाणी निरोध अर्थात् वचन गुप्ति । वचन गुप्ति से ज्ञान का संवर्धन होता है । जितना भाषा का प्रयोग अधिक होगा अंतर्ज्ञान में बाधाएँ उतनी ही अधिक आती रहेंगी । चचलताएँ बढ़ती रहेंगी । शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता का बहुत बड़ा समय वाणी विलास में चर्चा - वार्ता विचारणा और व्यर्थ बोलने में नष्ट हो जायेगा । अतः जिस साधना में सामर्थ्य-शक्ति और योग्यता की आवश्यकता थी वहाँ पूर्ति न होने से लाभ के स्थान पर हानि, शान्ति के स्थान पर अशान्ति निर्भय के स्थान पर भय, आनन्द के स्थान पर चिन्ता और उन्नति के स्थान पर अवनति छा जाती है फलतः अनेक विकृतियाँ बढ़ जाती हैं । विकृतियों की परिक्रमा टूटते ही अचिन्तन की अनुभूति अनुभवित होती है । चिन्तन से मुक्त होना, विकारों से मुक्त होना, विकल्पों के जाल से मुक्त होना, शब्दों मुक्त होना ही चिन्तन, निर्विचार, निर्विकल्प शब्दातीत या वचन गुप्ति होना है। वचन गुप्ति शाब्दिक विकल्पों से परे होने का परम उपाय हैं। वचन गुप्ति का क्षण शक्ति संचय और ऊर्जा के संवर्धन का क्षण है। वचन गुप्ति आत्मा का स्वभाव, आत्मा का धर्म और अखंड चेतना की सहज स्थिति है। ऐसे क्षणों में हम अपने मूल स्वभाव के अनुभव में होते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी आन्तरिक चेतना ज्ञान लोक में डुबकी लगाती है। यही ज्ञान जब अचिन्त्य, अद्भुत और सीमातीत रूप प्रयोगात्मक हो जाता है तब अपूर्व जो कभी देखा नहीं वह दृश्यमान होने लगता है। कभी जाना नहीं ऐसा ज्ञान होने लगता है। कभी पाया नहीं उसे पाने लगता है। अदृश्य को दृश्य स्थूल से सूक्ष्म तक पहुँचने की प्रक्रिया ही वचन योग से प्रयोग और प्रयोग से अयोग तक की प्रक्रिया है । सोचना वचन योग का कार्य है, देखना मनोयोग का कार्य है और दोनों के साथ-साथ चलना काय योग का कार्य है। जो वचन, योग में रहता है वह वचन गुप्ति को नहीं जानता, जो वचन गुप्ति को जानता है वह वचन योग में नहीं रहता । विचारना विकल्प को संजोना है, कल्पना में जीना है। कल्पना, स्मृति, सोचना, विचारना या चिन्तन करना शारीरिक प्रक्रिया है । वचन गुप्ति से विकल्प की जाल टूट जाती है, कल्पनाएँ समाप्त हो जाती हैं। न सोचना पड़ता है, न विचार आते हैं और न चिन्तन की आवश्यकता रहती है । केवल निर्विचार अवस्था का ज्ञान रहता है। आत्मा के स्वभाव का मात्र बोध होता है ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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