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________________ २०/ योग-प्रयोग-अयोग कल्पना, विचार, सुख, दुःख, प्रेम, भय और संकल्प को चित्तवृत्ति (States of Consciousness) कहते हैं । ___भोग और उपभोग के सर्व साधन इन वृत्तियों से ही उभरते हैं । वृत्तियों की पूर्ति काल में मन, शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि इत्यादि तद्रुप हो जाते हैं । फलतः अनावश्यक वृत्तियों की पूर्ति में जीवन बुद्धि का व्यय हो जाता है। इन्द्रियों का सम्बन्ध मन के साथ और मन का सम्बन्ध वृत्तियों के साथ जुड़ा हुआ है। वस्त्र अपने आपमें श्वेत है, किन्तु बाहर से गंदगी आती है और वस्त्र मैला हो जाता है। मन अपने आप में शुभ्र है। वृत्तियों की गंदगी आती है और शुभ्र मन को मलिन बना देती है। मन मलीन होते ही इन्द्रियाँ भोग में आकर्षित होती हैं । अतः इन्द्रियाँ चंचल नहीं, मन चंचल नहीं, चंचल हैं हमारी वृत्तियाँ । मन की चंचलता का अनुभव होता है, किन्तु वृत्तियों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। अतः सर्वप्रथम वृत्तियों की चंचलता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होना चाहिए। हमारी इच्छाएँ वासनाएँ, अनेक कामनाएँ वृत्तियों के रूप में मन को उत्तेजित करती रहती हैं । इन उत्तेजनाओं का प्रधान कारण है विषमता । विषमता से मन विक्षिप्त रहता है। विक्षिप्त मन में निमित्त मिलते ही क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि की ज्वालाएँ प्रज्ज्वलित होती हैं। भय, घृणा, कपट आदि क्रियाएँ वृत्तियों से संघर्ष फैलाती रहती है । फलतः संकल्प-विकल्प, आशा-निराशा, सफलता-निष्फलता इत्यादि मानसिक तनाव के रूप में समस्याएँ बनकर उभरती है अतः मन प्रकंपित रहता है, उद्वेलित रहता है, चंचल हो उठता है तथा विकृति को फैलाता रहता है। ___ मन का मालिन्य जिस प्रयोगात्मक ज्ञान से प्रतीत होता है, उसी प्रयोगात्मक ज्ञान में मन की विशुद्धि का उपाय विद्यमान है। उस उपाय को चरितार्थ करने का सामर्थ्य भी उसी प्रयोगात्मक ज्ञान में निहित हैं। इसलिए मन को बलात् रोंकने की आवश्यकता नहीं किन्तु आत्मा में विलीन करने की आवश्यकता है। मन एकाग्र होते ही चंचलता शान्त हो जायेगी पानी में पत्थर डालो पानी चंचल हो जायेगा। अनेक तरंगें उठने लगेंगी। वैसे ही अस्थिर मन विकल्पों से तरंगित हो जाता है और स्थिर मन शान्त हो जाता है । शान्त मन को मन गुप्ति कहतें हैं । ये मनगुप्ति ही अयोग है। आगम में मन के दो प्रकार हैं-१. द्रव्यमन २. भावमन। द्रव्यमन विकासशील प्राणियों में होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय साधक ही द्रव्यमन का अधिकारी होता है। जो भी प्रवृत्ति होती है शुभ या अशुभ वह द्रव्यमन द्वारा होती है, कषाय द्वारा उभरती है, इच्छाओं द्वारा प्रसरती हैं।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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