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________________ २. प्राप्ति क्रम में प्रयोगात्मक निरीक्षण और परीक्षण परिवर्तन की प्रक्रिया मनोयोग का प्रयोग मन शुद्धि के प्रयोग का ज्ञान किसी को हो या न हो किन्तु मन की अशुद्धि के प्रयोग का ज्ञान तो मानव मात्र को है। अतः मानव यदि शोधन करे तो अनुभव होगा कि साधना के क्षेत्र में मन की प्रक्रिया का ज्ञान कितना आवश्यक है ? हम शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, श्वास आदि स्थूल के दर्शन कर सकते हैं किन्तु दृश्य जगत के परे भी सूक्ष्म और सूक्ष्मतम जगत है जिसका हमें दर्शन करना है। शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श का अस्तित्व इन्द्रिय जगत से होता है, जिससे विषयों का आकर्षण उत्तेजित होता रहता है। इन आकर्षणों में राग और द्वेष का सम्बन्ध मन द्वारा होता है। कान शब्दों को सुनता है किन्तु उन शब्दों का आस्वादन नहीं कर पाता, प्रिय और अप्रिय का निर्णय नहीं करता, इसका निर्णय करने वाला मन सक्रिय मन सदा-सर्वदा इन्द्रिय जन्य कार्य में क्रियान्वित रहता है। आत्मा के चारों ओर कषाय का आवर्त है, जो अति सूक्ष्म है, इसके बाद अध्यवसाय का आवर्त है, उसके बाद तैजस और कार्मण शरीर का आवर्त है, यहाँ तक सूक्ष्मता होने से अदृश्यता है। इस अदृश्यता को दृश्य (शरीर इन्द्रिय आदि) से जोड़ने वाला योग है। योग का संयोग लेश्या से और लेश्या का संयोग अध्यवसाय से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार अध्यवसाय के संयोग से स्थूल शरीर में अनेक प्रकार के स्पंदन होते हैं । यही स्पन्दन सूक्ष्म मन और स्थूल मन द्वारा अभिव्यक्त होते रहते हैं । अध्यवसाय तो ---- "असंखेज्जा अज्झवसाणठाणा" अर्थात् असंख्य स्थान वाला है। अतः मन विकल्प के रूप में असंख्य बार हमारे सामने चल-चित्रों की भाँति उपस्थित होता रहता है। भावि की कल्पनाओं में संजोया रहता है और वृत्तियों के घेरे में विक्षिप्त बना रहता है। हमारे जीवन में अनेक प्रकार की घटनाएँ प्रतिक्षण घटित होती रहती हैं। कभी हम देखते हैं, कभी सुनते हैं, कभी किसी को स्मरण करते हैं, कभी कल्पना में डूब जाते हैं। फलतः कभी सुख का, कभी दुःख का अनुभव होता है। जिस शक्ति द्वारा ये घटनाएँ घटित होती हैं, उसे चेतना (Consciousness) कहते हैं और इन संवेदन, उपलब्धि स्मृति
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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