SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग-प्रयोग-अयोग/ १८९ रूप में देखें, चाहे हम शरीर को भीतरी रूप में देखें, यह अंतर्दर्शन नहीं है। अंतर्दर्शन कुछ और होता है । वह है देह से परे कुछ है, ऐसा भान हो जाना । जब साधक अध्यात्मयोगी होता है तब उसे भान होता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर अचेतन है, मैं चेतन हूँ। शरीर पुदगल है, मैं अपुदगल हूँ। शरीर मूर्त है, मैं अमूर्त हूँ। अचेतन, पुद्गल और मूर्त के प्रतिपक्ष में नये तथ्य का उदय होता है, नये रहस्य का उद्घाटन होता है। चेतन, अ-पुद्गल और अमूर्त का भान होता है। आत्मा और शरीर के विषय में सभी की दृष्टि भिन्न-भिन्न है। कुछ दार्शनिकों ने आत्मा में सत्ता की स्थापना की है तो कुछ दार्शनिकों ने शरीर की सत्ता को स्वीकार किया है। आत्मा अमूर्त होने से उसके विषय में अनेक समस्याएँ उठना स्वाभाविक है क्योंकि हमारे जीवन का सारा बाह्य स्वरूप, सारा परिवेश और सारा वातावरण पुद्गल का है। हमारी आंखें पौद्गलिक हैं । हमारा मन पौद्गलिक है। हमारी भाषा पौद्गलिक है। हमारा समस्त रूपी (शब्द, रूप, रस, गंध) पदार्थ पौद्गलिक है। हमारी स्मृति पौदगलिक है। हमारी बुद्धि पौद्गलिक है। इस प्रकार मनन, चिन्तन, इन्द्रियाँ इत्यादि सब कुछ पौद्गलिक हैं । फिर हमारे पास ऐसा कौन-सा सबल प्रमाण रहा जो अपौद्गलिक सत्ता की स्थापना कर सके ? अध्यात्म का विकास जिस व्यक्ति में होता है वह इस शाश्वत प्रश्न का समाधान तात्विक चिन्तवना से, तार्किक बुद्धि से, दार्शनिक धरातल से, दर्शन की उपलब्धि से, अनेक मार्मिक निर्णयों, समीक्षाओं और संकल्पों के आधार पर, आत्मा और अनात्मा, चेतन और अचेतन, पुद्गल और अपुद्गल के आधार पर अपने आप उद्घटित करता. रहता है। जिस साधक को मन के साथ तैजसलब्धि का संयोग प्राप्त होता है वह अंतर्मुहूर्त में 'चौदह पूर्वो' का परावर्तन कर सकता है। "चौदह पूर्व अर्थात् ज्ञान के भंडार हैं । उनका परावर्तन ४८ मिनट में तैजसलब्धि की शक्ति का द्योतक है। जिसे वचनबल के साथ तैजसलब्धि का संयोग प्राप्त है वह चौदह पूर्वो का उच्चारण अंतर्मुहूर्त में कर सकता है। जिसकी तैजसलब्धि विशेष बलवती होती है वही चतुर्दश पूर्वी योगी है और सम्पूर्ण ज्ञान को अंतर्मुहूर्त में प्राप्त करने की क्षमता वाला है। योग के क्षेत्र में योग के द्वारा ऐसा विस्फोट होता है कि स्वयं का समाधान स्वयं से हो जाता है। वहाँ ममता की दीवारें टूट जाती हैं और स्पष्ट अनुभव होने लगते हैं कि मैं वह हूँ जो ज्ञाता है, द्रष्टा है। आत्मा का एकमात्र लक्षण ही ज्ञाता और द्रष्टा है। शुद्ध चैतन्य का उपयोग ही केवल ज्ञाता और द्रष्टा है। जहाँ कोई राग नहीं है, कोई द्वेष नहीं है। ज्ञाता और द्रष्टा का अर्थ है - राग-द्वेष से मुक्त होना, वर्तमान में जीना, वीतराग भाव में जीना।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy