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________________ १७४ / योग-प्रयोग-अयोग वेद्यसंवेद्यपद १. वैद्यसंवेद्यपद भिन्नग्रन्थि, देशविरति, और क्षायिक सम्यग्दृष्टि वाले साधक को ही प्राप्त होता है। क्योंकि इस दीप्रादृष्टि में पौद्गलिक भाव होने के कारण असत प्रवृत्ति की ओर जीवात्मा की स्थिति होती है। जिससे उस आत्मा को सूक्ष्म बोध रूप फलों की प्राप्ति नहीं होती है। जीवात्मा में मालिन्यता होने से तत्वविषयक बोध की प्राप्ति भी नहीं होती। फिर भी यह दृष्टि अवंध्यबीज रूप होने से कभी-कभी बोध को प्राप्त कर लेती है। प्रथम चार दृष्टिओं में अवेद्य संवेद्य पद की प्रबलता होती है और वेद्यसंवेद्य पद मात्र पंछी प्रतिबिम्बवत् अर्थात् जैसे जल में पंछी के प्रतिबिम्ब को देखकर कोई अज्ञानी जलचर प्राणी भ्रान्तिवश उसे पकड़ने जाता है और ऐसी चेष्टा निष्फल ही होती है वैसे ही प्रथम चार दृष्टिऔं में वेद्यसंवेद्यपद तदाभासरूप अतात्विक होता है। अवेद्यसंवेद्यपद ___ वेद्यसंवेद्यपद से यह पद विपरीत है, साथ-साथ वज्र जैसा अभेद्य भी है विशेष रूप से यह पद भवाभिनन्दी जीवों में पाया जाता है। भवाभिनन्दी-क्षुद्र, लोभी, दीन, मत्सरवंत, मयाकुल, शठ, अज्ञानी, आसक्त, निष्फल आरम्भ युक्त, असत् परिणामयुक्त लक्षणवाला होता है ।१० अवेद्यसंवेद्यपद मिथ्यात्व और वेद्यसंवेद्यपद सम्यक्त्व है। सम्यकगुण का प्रथम चार दृष्टिओं में अभाव होने से अवेद्यसंवेद्यपद परमार्थ दृष्टि से हेय है, योगियों के लिए वेद्यसंवेद्य पद ही उपादेय है। कोष्ठक नं. १४ अवेध संवेद्य और वेद्य संवेद्य पद की तुलना नाम अवेद्य संवेद्य पद वेद्य संवेद्य पद किस दृष्टि में प्रथम चार में अवेद्य संवेद्यपद अंतिम चार में वेद्य संवेद्यपद प्रबल वेद्य सवेद्य अतात्विक नहीं होता वेद्य संवेद्यपद तात्विक। कारण ग्रंथिभेद ग्रंथिभेद । ८. योगदृष्टि समुच्चय श्लो. ७६, योगबिन्दु श्लो. ८७. पृ. १७४ । ९. योगदृष्टि समुच्चय श्लो. ६६ । १०: योगबिन्दु श्लो. ८७, पृ. १७४ । योगदृष्टि समुच्चय श्लो. ७६ ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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