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________________ योग-प्रयोग-अयोग/ १७३ तत्वश्रवण तत्वश्रवण में अत्यधिक श्रद्धा एवं प्रीति होने से तत्व चिन्तन का अचिन्त्य प्रभाव मोक्षबीज को पल्लवित करता है। किन्तु इतना ध्यान रखना कि यहाँ क्षारजलवत् भवयोग जानना और तत्वश्रवण को मधुरजल जानना । समापत्ति विवेकी साधक को इस संसार की असारता का अनुभव होता है। वह क्षण भर के लिए भी सांसारिक वृत्ति में इच्छा और वांछी नहीं करता। ऐसा साधक वैराग्य भावना से भावित होता हूँ। गुरुभक्ति के सामर्थ्य से अर्थात् ध्यान स्पर्शना से सम-सम्यक् आपत्ति प्राप्ति, समापत्ति प्राप्त होती है। यह समापत्ति तीन कारणों से विकसित होती है - (१) निर्मलता (२) स्थिर एकाग्रता (३) तन्मयता। तात्पर्य यह है कि चित्त की निर्मलता होने पर ही चित्त की स्थिरता होती है और चित्त की स्थिरता होने पर ही तन्मयता होती है। इस प्रकार आत्मभाव के बिना तात्विक समापत्ति ग्राह्य, ग्रहण और गृहीत के भेद से तीन प्रकार की होती हैं। (द्वा, २० द्वा श्लो., ९ पृ. १२०) इस समापत्ति के और भी चार प्रकार प्राप्त होते हैं । (१) सवितर्क, (२) निर्वितर्क, (३) सविचार, (४) निर्विचार, ये समापत्ति संप्रज्ञातससमाधि (सविकल्प) है। उसे ही "सबीज" समाधि कहा जाता है। अंतिम निर्विचार समापत्ति की निर्मलता से अध्यात्मप्रसाद की प्राप्ति होती है । जिससे ऋतम्भराप्रज्ञा उत्पन्न होती है। वह श्रुत-अनुमान से अधिक होता है। ऋतम्भराप्रज्ञा से संस्कारांतर का बाधक ऐसा. तत्व संस्कार उत्पन्न होता है और उसके निरोध से असंप्रज्ञात् (निर्विकल्प) नामक समाधि उत्पन्न होती है। इस असंप्रज्ञात से कैवल्य प्राप्त होता है। इस प्रकार निर्विचार समापत्ति अध्यात्म प्रसाद ऋतम्भराप्रज्ञा तत्वसंस्कार असंप्रज्ञातसमाधि केवल्य ऐसा क्रम है। द्वा. २० द्वा. श्लो. ११, १२, १३ के अनुसार सम्पन्न नहीं हो पाती । . ४. योगदृष्टि समुच्चय श्लो. ६२ । ५. ज्ञानार्णव श्लो. ९, १४, ३०, ३१, २३ अनित्य भावना प्रकरण । ६. द्वा. २० द्वा. श्लो. १०, पृ. १२० । ७. तात्विकी च समापत्तिनांत्मनो भाव्यतां विना ॥ द्वा. २०, द्वा. श्लो. १५ ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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