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________________ १७२/योग-प्रयोग-अयोग बला दृष्टि कोष्ठक १३ दर्शन योगांग दोष त्याग गुण प्राप्ति बोधकाष्ठ योग का क्षेप दोष का शुश्रूषा । तृतीय त्याग निर्विघ्न बोध प्रवाह जल अग्निवत् अंग-आसन कार्य स्रोत के समान युवान पुरुष की सुश्रूषा जैसी तीव्र योग उपाय कौशल ४. दीपा दृष्टि राग-द्वेष की मंदता कर्ममल की अल्पता तथा चित्त के परिणाम की निर्मलता हो जाने पर दीप्रा दृष्टि प्राप्त होती है। इस दृष्टि को प्रदीप के प्रकाश की उपमा दी गई है। जैसे दीपक का प्रकाश अधिक स्थाई और स्पष्ट होता है उसी प्रकार इस दृष्टि वाले का बोध तीन दृष्टियों की अपेक्षा अधिक स्थाई और अधिक सामर्थ्यवान होता है। आचरण की दृष्टि से शुद्धता अवश्य है, परन्तु जिस प्रकार प्रदीप का प्रकाश पर वस्तु अर्थात् तेल पर अवलम्बित है उसी प्रकार यह बोध भी परावलम्बित है, निज की आत्मा पर अवलम्बित नहीं है। इसलिये वह पूर्ण रूप से स्थाई नहीं है। जैसे हवा से दीपक बुझ सकता है वैसे वही साधक बाहरी कारणों से क्षिप्तविक्षिप्त हो सकता है। यहाँ भी सब क्रियाएँ भावशून्य केवल द्रव्य रूप ही होती हैं । इस दृष्टि तक मिथ्यात्व गुणस्थानं ही है। इस दृष्टि में प्राणायाम योग होता है। अतः साधक बाह्य भाव छोड़कर अंतरभाव की ओर आगे बढ़ता है और उसी में स्थिर रहता है । इस दृष्टि में प्रथम बताए हुए जो योगबीज के अंकुर हैं वह सहज स्पष्ट रूप में पल्लवित होते दृष्टिगोचर होते हैं. ३ धर्म के प्रति प्रीति बाह्य भावना के त्यागरूप भाव रेचक प्राणायाम की प्राप्ति होने से इस दीप्रादृष्टि में स्थित योगी महात्मा को धर्म के प्रति उत्कृष्ट प्रीति उत्पन्न होती है। ३. (द्वा. २२ द्वा. तारादित्रय-द्वात्रिंशिका श्लो. १९, पृ. १३५) .
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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